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________________ 284 :: मूकमाटी-मीमांसा ...मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने । ...तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से,/इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है/जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में/तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।” (पृ. २७७) कुम्भ को अवा की अग्नि में कई दिनों तक तपना पड़ता है, तब कहीं, शिल्पी कुम्भकार को विश्वास हो जाता है कि सभी कुम्भ पक गए होंगे । वह सोल्लास हाथों में फावड़ा लेकर अवा की राख को हटाता है और ज्यों-ज्यों राख हटाई जाती है त्यों-त्यों शिल्पी कुम्भकार का कौतूहल बढ़ता जाता है, अपनी कुशल सृजना कुम्भ के प्रति । तब शिल्पी कुम्भकार पके-तपे कुम्भ को सोल्लास अवा से बाहर निकालता है । इसी बीच वह उसी कुम्भ को श्रद्धालु नगर सेठ के सेवक के हाथों में देता है, जिसे ले जाने के पहले वह उसे सात बार बजाता है। तब घड़े में से जो स्वर ध्वनित होता है, जिसका अर्थ कवि के मन में एक प्रतिध्वनि के रूप में गूंजता है : “सारे गम यानी/सभी प्रकार के दु:ख/प'ध यानी पद-स्वभाव और/नि यानी नहीं,/दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह ।” (पृ. ३०५) मृदंग के रूप में गुंजरित इस आत्मा की आवाज़ भी 'धाधिन धिन् 'धा' का स्वर अलापती हुई सुनाई पड़ रही है । इस अन्तरात्मा की आवाज़ कोई निराला सन्त ही सुन रहा है। सारा संसार तो गूंगा और बहरा है । सेठ घड़े को शीतल जल से भरकर आहार-दान के लिए पधारे, गुरु के पाद-प्रक्षालन करता है । भक्तों की भावना, आहार देने या न दे सकने का हर्ष-विषाद, साधु की दृष्टि, धर्मोपदेश का सार और आहार-दान के उपरान्त नगर सेठ का अनमने भाव से घर लौटना सम्भवत: इसलिए हुआ कि सेठ को जीवन का गन्तव्य दिखाई दे गया, किन्तु वह अभी बन्धन मुक्त नहीं हो सका, आदि अनेक प्रसंग सविस्तार विवेचित हुए हैं : "प्रकाश का सही लक्षण वही है/जो सब को प्रकाशित करे ! ...भाग्यशाली भाग्यहीन को/कभी भगाते नहीं, प्रभो ! भाग्यवान् भगवान् बनाते हैं।” (पृ.३४२) इस प्रकार यह खण्ड, प्रसंग में से एक नया प्रसंग, बात में से एक नई बात की उद्भावना का, तत्त्व चिन्तन की गहनता का, सूक्ष्म विवेचना का, लौकिक और पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों का एक विचित्र छवि-घर बन गया है। इस खण्ड में ही नहीं, पूरे महाकाव्य में अनेक ऐसी परिकल्पनाएँ तथा साहसिक, सार्थक और आधुनिक परिदृश्य हैं, जिन पर अच्छे से अच्छे कवियों की दृष्टि नहीं जाती, उनकी कल्पना कुण्ठित पड़ जाती है और लेखनी विराम ले लेती है। पूजा-अर्चना और उपासना के उपकरण भी सजीव वार्तालाप में निमग्न हो जाते हैं, जिनका मानवीकरण नई-नई उद्भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। नए सन्दर्भो के शब्दालंकार और अर्थालंकारों की छटा मोहक और आकर्षक बन पड़ी है। कवि अर्थान्वेषिणी दृष्टि से शब्द की ध्वनि को अनेक साम्यों में उपयोग करके, उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नई-नई धार देते हैं तथा नई-नई परतें उघाड़ते हैं। शब्द की व्युत्पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती है, उसके माध्यम से अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों के दर्शन भी होते हैं। चतुर्थ खण्ड तो ऐसे अनेक उद्धरणों से
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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