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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 259 डॉ. नामवर सिंह का आरोप है : “बिम्बों के कारण कविता बोलचाल की भाषा से अक्सर दूर हटी है, बोलचाल की सहज लय खण्डित हुई है, वाक्य-विन्यास की शक्ति को धक्का लगा है, भाषा के अन्तर्गत क्रियाएँ उपेक्षित हुई हैं, विशेषणों का अनावश्यक भार बढ़ा है, और काव्य कथ्य की ताकत कम हुई है।" किन्तु बिम्ब प्रयोग के बावजूद भी 'मूकमाटी' इन आरोपों से बच निकली है । वस्तुत: यह व्यवधान तभी उत्पन्न होते हैं, जब भाव और भाषा, अनुभूति और अभिव्यक्ति, संवदेना और सम्प्रेषण के धरातल पर सहज सम्बन्ध का अभाव हो । यहाँ तो ऐसी कोई बात नहीं है। प्रगीतात्मकता और नाटकीयता, काव्य संरचना की प्रमुख आधारभित्ति होती है । काव्य संरचना वह प्रक्रिया है, जिससे होकर कवि गुज़रता है और यह संरचना खण्ड में नहीं, रचना की सम्पूर्णता में परिलक्षित होती है । निराला भी इसे स्वीकार करते हैं । यहाँ भी संरचना प्रक्रिया का पूरा आभास रचना की सम्पूर्णता में परिलक्षित होता है । जहाँ रचनाकार एक तरंग को एक 'स्ट्रक्चर' के रूप में परिवर्तित करता दिखाई देता है । इसमें यहाँ बुद्धि और हृदय का विभाजन नहीं अपितु दोनों का एक मानसिक अन्तर्ग्रथन है । यहाँ भाव और रचना प्रक्रिया का ऐसा तादात्म्यीकरण होता है, जहाँ दोनों एक प्राण - एक शरीर दिखाई देते हैं, और यही मानसिक अन्तर्ग्रथन जो अनुकरणात्मकता, वर्णनात्मकता, कथात्मकता से दूर होता है और प्रगीतात्मकता का जन्मदाता होता है। 'मूकमाटी' में प्रगीतात्मकता काव्य संरचना के गुण के रूप में सर्वत्र उपस्थित है : “यह बात निश्चित है कि/मान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है।/अति-पोषण या अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है।" (पृ. ४१८) - "दो टूक बोलते नहीं हम/भूल-चूक की बात निराली है।” (पृ. ४३५) कहना न होगा कि यह लय इस कविता का सबसे समर्थ तत्त्व है जो शुद्ध वक्तृत्व गुण के द्वारा कविता के मूल अर्थ को सम्प्रेषित कर देता है। अरस्तु के अनुसार नाटकीय कविता 'कार्य का अनुकरण' के सिद्धान्त पर आधारित होती है । वस्तुत: कविता का सामान्य रूपाकार एक सीधी रेखा वाला न होकर टेढ़ा-मेढ़ा होता है, कविता की अनिवार्यता नाटकीयता है, पर यह कार्य के अनुकरण मात्र के रूप में नहीं अपितु बोध (भाव) के धरातल पर भी आनी चाहिए, तभी यह सहज होगी। और यह नाटकीयता प्रसंगवश समाज-व्यवस्था, कल होने वाली घटनाओं के वर्णन, कथन के अर्थ गाम्भीर्य, आत्मस्वीकृति में तो है ही, साथ ही इस काव्य ग्रन्थ में एक प्रभावशाली पट भूमि एवं एक जादुई दुनिया के निर्माण में भी सहायक बनती है। और मेरी दृष्टि में आचार्य विद्यासागरजी का उद्देश्य है - मानव को जाग्रत कर उसे कर्म क्षेत्र की ओर उन्मुख करना, ऐसे कर्म क्षेत्र की ओर, जो मानवीयता के विकास की ओर उन्मुख हो तथा जो जड़ और चेतन को एक रूप में देखने का पक्षपाती हो : 0 "संहार की बात मत करो,/संघर्ष करते जाओ ! हार की बात मत करो,/उत्कर्ष करते जाओ!" (पृ. ४३२) "...अभी/आतंकवाद गया नहीं,/उससे संघर्ष करना है अभी।” (पृ. ४४१) D "सारा संसार ही ऋणी है धरणी का/तुम्हें भी ऋण चुकाना है । धरणी को उर में धारण कर,/करनी को हृदय से सुधारना है।" (पृ. ४४९)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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