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मूकमाटी-मीमांसा :: 257 परिवार की रक्षा स्वयं और सहयोगी प्राकृतिक शक्तियों तथा मनुष्येतर प्राणियों - गजदल और नाग-नागिन की सहायता से किस प्रकार करता है, किस प्रकार सेठ का क्षमाभाव आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन करता है, आदि। यह वर्णन विवेचन कविता के रसास्वाद को चरम पर पहुँचाता है । आज के प्रसंगों के अनुरूप इस समस्या का समाधान आधुनिक समाज व्यवस्था के विश्लेषण द्वारा प्रस्तुत किया गया । यहाँ अभिधा नहीं, लक्षणा और व्यंजना सहायक बनती हैं, रचनाकार की अनुभूति की अभिव्यक्ति की ।
आचार्यप्रवर सामाजिक दायित्व बोध के प्रति भी सजग हैं । वे यह मानते हैं कि यह बोध ही मानवीयता की आधारभित्ति है । तभी तो उसके लिए चुनते हैं एक सामान्य मत्कुण (खटमल) को :
" सूखा प्रलोभन मत दिया करो / स्वाश्रित जीवन जिया करो,
कपटता की पटुता को / जलांजलि दो! /... जीवन उदारता का उदाहरण बने ! अकारण ही - / पर के दुःख का सदा हरण हो !” (पृ. ३८७-३८८)
निश्चय ही रचना और रचनाकार उसी मानवता का सन्देश दे रहा है जो युगों-युगों से मनुष्य को मनुष्य बनाए हुए है। आत्मा का उद्धार तो अपने ही पुरुषार्थ से हो सकता है। और यह उद्धार साधना से प्राप्त महती उपलब्धि है :
" बन्धन-रूप तन,/ मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है । इसी की शुद्ध - दशा में / अविनश्वर सुख होता है / जिसे / प्राप्त होने के बाद, यहाँ/ संसार में आना कैसे सम्भव है / तुम ही बताओ !” (पृ. ४८६-४८७)
कवि-कर्म के प्रति सजग कवि नव रसों को नए ढंग से प्रतिपादित करता है और इनमें वह शान्त रस की प्रधानता स्थापित करता है। सचमुच शान्त रस ही तो मानवीयता का जनक है :
"करुणा-रस जीवन का प्राण है / ... कठिनतम पाषाण को भी मोम बना देता है ।" (पृ. १५९)
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सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस है । शान्ति की ही कामना तो मानवता को है, और यह मानव कामना ही 'मूकमाटी' का प्रतिपाद्य है। पर उसके आधार एवं माध्यम अनेक हैं किन्तु सब शृंखलाबद्ध, जैसा 'मूकमाटी' में
बँधा है।
'मूकमाटी' एक तरफ जहाँ सामयिक समस्याओं का जीवन्त और सार्थक प्रयोग है, वहीं वह ऐतिहासिक सम्बन्ध के प्रति भी जागरूक है। यह जागरूकता जहाँ अतीत के गहन अध्ययन की परिणति है, वहीं वर्तमान को जाग्रत करने का प्रयास भी । वस्तुत: आधुनिकता को 'भारतीय संस्कृति' अथवा 'भारतीय परम्परा' से जोड़ने की अनिवार्यता का अनुभव ही इस अभिव्यक्ति की सार्थकता है । रामकथा आदि के उदाहरण मेरे इस कथन के साक्षी हैं । किन्तु इस आधार ग्रहण का महत्त्वपूर्ण पक्ष है यथार्थ :
"मैं यथाकार बनना चाहता हूँ / व्यथाकार नहीं ।
और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ / कथाकार नहीं ।" (पृ. २४५)
इतिहास की पुनरावृत्ति उस घुटन, कुण्ठा, कशमकश, निरुपायता का पर्याय भी बनी है, जो आज के जीवन की अनिवार्यता है :