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________________ xxviii :: मूकमाटी-मीमांसा पद्धति से एवं रोचक शैली से प्रस्तुत कर धार्मिक चेतना और भक्तिभावना को जाग्रत करना उनका मुख्य उद्देश्य था । उसके लिए उन्होंने धर्मकथानुयोग और प्रथमानुयोग का सहारा लिया। जन सामान्य को सुगम रीति से धार्मिक नियम समझाने के लिए कथात्मक साहित्य से बढ़ कर अधिक प्रभावशाली साधन दूसरा नहीं है।" अभिप्राय यह कि परम्परा अर्थात् जैन काव्य परम्परा का साक्ष्य भी यही कहता है कि इस प्रस्थान के प्रति समर्पित जैन मुनियों का लक्ष्य व्युत्पत्ति' के आधान पर अधिक है, 'प्रीति' माध्यम है। ब्राह्मणधारा के शैव आचार्य अभिनव गुप्त ने काव्य प्रयोजन पर विचार करते हुए आनन्दवादियों' (प्रीतिवादियों) और 'व्युत्पत्तिवादियों के पक्षधरों से उभरते हुए अन्तर्विरोध का समन्वय करते हुए अभिनव भारती' और 'लोचन' में बताया है कि वस्तुत: परिणतप्रज्ञ या परिणतकवि का मूल प्रयोजन तो 'प्रीति' या 'रस' निष्पादन ही है । यह बात भिन्न है कि तदर्थ नियोजित विभावादि सामग्री में 'औचित्य' का सम्यक् निर्वाह होना चाहिए। यह औचित्य इसकी परा उपनिषद् है और औचित्य हमारी सम्प्रदायानुमोदित मान्यताएँ ही हैं, जिनसे ग्राहक लोक में अपेक्षित व्युत्पत्ति' अनायास आहित हो जाती हैं । ब्राह्मणधारा और उसमें भी शैवागमसम्मतधारा वासनाशोधन की पक्षधर है । वह उसमें भी अमृत का अनुसन्धान करती है, उसके माध्यम से भी श्रेयस्कर गन्तव्य पर पहुँचती है, जबकि श्रमण धारा, विशेष कर जैन प्रस्थान वासना का दमन या क्षयोपशम करती है। अत: वह उसे उस साध्य स्थान पर रख ही नहीं सकती, उसे पार्श्ववर्ती ही बनाकर उपयोग कर सकती है । फलत: यहाँ 'प्रीति' और 'व्युत्पत्ति' में व्युत्पत्ति पर ज़यादा और प्रत्यक्ष बल रहता है, प्रीतिकर सामग्री साधन होती है। यहाँ 'कान्तासम्मितउपदेश' का स्वर मुखर होता है। ____ आलोच्य ग्रन्थ का स्वर प्रभावोत्पादन से अधिक प्रबोधोत्पादन है । घट की आत्मकथा के साथ चलने वाला व्युत्पित्सु अन्तत: यह प्रबोध प्राप्त करता है कि निमित्त की शरण जाकर सम्भावनामय उपादान समर्पण के माध्यम से अपनी सम्भावनाओं को उपलब्धि का आकार दे । इसके साथ-साथ उसका बाधक काषाय शान्त होगा, 'पर' के प्रति निर्वेद होगा, शान्त की निष्पत्ति होगी। इस प्रकार प्रीतिकर शान्त रस सहायता करेगा। शास्त्र की अपेक्षा इस और इस तरह के प्रबन्ध काव्य लक्ष्य तक पहुँचाने में सौन्दर्य प्रदान करेंगे। इस अन्तरंग एवं बहिरंग साक्ष्य और परम्परा के आधार पर विचार करने से यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत कृति 'शुद्ध कविता' की अपेक्षा 'शास्त्र काव्य' है । शुद्ध कविता में सामग्री की योजना में प्रीतिकर प्रभाव उत्पन्न करना मुख्य लक्ष्य होता है, मान्यताओं की सुगन्ध व्यंजना से मिलती है। शास्त्रकाव्य में मान्यताएँ संवाद-विधान में उपदेश का स्वर अधिक पकड़ती हैं और अभिधा में होती हैं। आलोच्य रचना में संवादों की प्रचुरता है, भाव व्यंजना और वर्णनात्मक प्रसंगों की अपेक्षाकृत कमी है । इसकी पुष्टि आगे विशद विवेचन से की जायगी। इस विवेचन का तात्पर्य किसी धारा की आपेक्षिक श्रेष्ठता या अ-श्रेष्ठता से नहीं है, यह तो अपनी-अपनी धारा है । इसका मतलब यह भी नहीं है कि जैन काव्य परम्परा में प्रेमाख्यानक नहीं हैं या कि उसमें भाव व्यंजना और वर्णनमय रचनाएँ नहीं हैं, नहीं; हैं और खूब हैं। यहाँ जैन मुनियों की काव्य परम्परा की बात प्रकान्त है। फलत: इस निष्कर्ष को उसी क्रम में होना चाहिए। क्षमता अलग बात है और क्षमता का उपयोग अलग बात है । आचार्य श्री विद्यासागरजी के प्रस्तुत प्रबन्ध काव्य का आरम्भ ही देखें - वर्णन है, काव्योचित कोमल और शृंगारिक भंगिमा है, भाव का आवेग है, पर मानसिक संरचना इस क्षमता को पूरे उभार पर नहीं लाती। 'स्व-भाव' की प्राप्ति में अपेक्षित मान्यताओं को संवादात्मक पद्धति पर रोचक कथा के सहारे उभारने की ओर उनकी प्रतिभा का संरम्भ लक्षित होता है । ऐसा करके जहाँ एक ओर इन्होंने अपनी परम्परा का साथ दिया है, वहीं चरित काव्य, पुराण काव्य या कथा काव्य की पद्धतियाँ अस्वीकार कर अपना अक्षुण्ण मार्ग भी निर्मित किया है । इन्होंने 'कामायनी'कार की भाँति रूपक या प्रतीक काव्य की पद्धति अपनाई है। उसकी अपेक्षा इसका वैशिष्टय संवादों के प्रचुर विधान में है । निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत काव्य 'संवाद प्रचुर प्रतीक पद्धति का शास्त्रकाव्य' है । इस निष्कर्ष के आलोक
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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