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मूकमाटी-मीमांसा :: 237 ये सहज रूप में ढल गए हैं। इसके लिए कवि को प्रयास नहीं करना पड़ा है। नवीन उपमान योजना में भी कवि की प्रतिभा सक्रिय रही है । बानगी के रूप में कविता की एक पंक्ति देखिए: “पापड़ सिकती-सी काया सब की / छटपटाने लगी" (पृ. २१२) । इसमें 'काया' की छटपटाहट के लिए सिकते हुए पापड़ की ऐंठन और सिकुड़न के अभिनव उपमान का प्रयोग किया गया है, जो कवि के प्रयोगशील शिल्प- वैशिष्ट्य को उजागर करता है । उपमा कवि का प्रिय अलंकार है । इस अलंकार के प्रयोग में कवि ने विशेष तत्परता दिखाई है। यमक अलंकार का भी काव्य में सहज और सुन्दर प्रयोग हुआ है । व्यतिरेक और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का भी विरल विनियोग देखने को मिलता है। मुहावरों और लोकोक्तियों का भी काव्यात्मक प्रयोग किया गया है। लोकजीवन की गन्ध से सुवासित कतिपय लोकोक्तियाँ तो पठनीय ही नहीं, स्मरणीय और आचरणीय भी हैं। उदाहरण के रूप में एक लोकोक्ति प्रस्तुत है :
"आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का ।” (पृ. १३५)
भाषा पर कवि का अचूक अधिकार है । कवि के इशारों पर भाषा इस तरह नाचती है कि शब्द में गुम्फित अर्थ की परतें अनायास खुलने लगती हैं । अनेक शब्दों का अपने ढंग से व्युत्पत्तिपरक भाष्य करके कवि ने भाषाशास्त्र की बहुआयामी सम्भावनाओं का पथ प्रशस्त किया है और भाषिक अनुसन्धित्सुओं को अदृष्टपूर्व आभा भी दिखलाई है । कुम्भकार, गदहा, कायरता, संसार, मरहम, दोगला, नारी, अबला, कुमारी, स्त्री, दुहिता, मातृ, अंगना जैसे अनेकानेक पारिभाषिक शब्दों से काव्य भरा पड़ा है । काव्य की शब्द- सम्पदा को देखते हुए मैं सोचता हूँ कि 'मूकमाटी' का भाषाशास्त्रीय अनुशीलन' एक महत्त्वपूर्ण शोधपरक विषय सकता है।
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पृष्ठ ६३ गाँठ के सन्धि-स्थान पर
तुरन्त गाँठ खोल देते हैं।
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