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मूकमाटी-मीमांसा :: 231
वंश मुक्ता, सीप मुक्ता, नाग मुक्ता, शूकर मुक्ता, मच्छ मुक्ता, गज मुक्ता, यहाँ तक कि मेघ मुक्ता बनने में भी धरती का हाथ है। रत्नगर्भा धरती की इन उपलब्धियों से चन्द्रमा की चन्द्रिका ईर्ष्यावृद्धि में अभितप्त होने लगती है । चन्द्रमा के निर्देशन में धरती की शान्ति भंग करने के लिए जल तत्त्व सक्रिय हो जाता है :
"धरती को अपमानित - अपवादित/करने हेतु/चन्द्रमा के निर्देशन में जलतत्त्व वह अति तेजी से/शतरंज की चाल चलने लगा, यदा-कदा स्वल्प वर्षा कर/दल-दल पैदा करने लगा धरती पर । धरती की एकता/अखण्डता को/क्षति पहुँचाने हेतु/दल-दल पैदा करने लगा! दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना!/जितने विचार, उतने प्रचार उतनी चाल-ढाल/हाला घुली जल-ता।
क्लान्ति की जननी है ना!" (पृ.१९६-१९७) उपरिलिखित पंक्तियों में समसामयिक स्थिति की ओर भी संकेत किया गया है । दल-बहुलता से उपजी वैचारिक विषमता के कारण लोग अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग आलाप रहे हैं, जो राष्ट्रीय एकता का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है। आज व्यक्ति इतना आत्मकेन्द्रित हो गया है कि तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए बड़े से बड़ा अनर्थ करने में भी नहीं हिचकता।
___ प्रभाकर के प्रवचन से प्रभावित होकर बदलियों का हृदय परिवर्तित हो जाता है । प्रलय के लिए कटिबद्ध बदलियाँ लोकसेवा में तत्पर होकर कुम्भकार के प्रांगण में अपक्व कुम्भों पर मुक्ता की वर्षा करने लगती हैं। मोतियों की वर्षा की बात राजा के कानों तक पहुँचती है । लोभी राजा अपनी मण्डली को मोतियों की राशि को बोरियों में भरने का संकेत करता है । मुक्ता राशि को बोरियों में भरने के लिए ज्योंही मण्डली झुकती है, त्योंही आकाश गुरु-गम्भीर-वाणी के साथ मुखरित हो उठता है :
"अनर्थ अनर्थ अनर्थ !/पाप"पाप"पाप..!/क्या कर रहे आप... ? परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें/करो पुरुषार्थ सही पुरुष की पहचान करो सही,/परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगलो भले ही,/कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत,/जीवन को खतरा है !/पर-कामिनी,/वह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी/मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में हाय रे ! समग्र संसार-सृष्टि में/अब शिष्टता कहाँ है वह ?
अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र!" (पृ. २११-२१२) बिना पसीना बहाए सम्पत्ति-अर्जन चोरी है, और चोरी कापुरुषता का परिचायक है । परिश्रम पुरुषार्थ का पर्याय है । पुरुषार्थी व्यक्ति पर-द्रव्य को मिट्टी समझता हुआ 'श्रम एव जयते' में विश्वास रखता है । 'मातृवत् परदारेसु परद्रव्येषु लोष्ठवत्' के शिष्टाचार की अवहेलना के कारण ही आज विश्व दुश्चरित्रता और दुष्टता के सन्त्रास से पीड़ित
हृदयवेधी आकाशवाणी का भी राजमण्डली पर कारगर प्रभाव नहीं पड़ता । मुक्ताराशि को बटोरने के लिए मण्डली हाथ पसारती है, लेकिन मुक्ता के स्पर्श से ही सबको बिच्छू के डंक की वेदना का तीव्र एहसास होने लगता है