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224 :: मूकमाटी-मीमांसा
सर्वथा स्तब्ध - निर्विचार!" (पृ. २८८-८९) कवि ने अनेक प्रसंग लेकर ऐसे रूपकों की सृष्टि की है, जो जीवन के परम पुरुषार्थ 'मोक्ष' की प्राप्ति का साधन 'अध्यात्म साधना' में ही इंगित करते हैं।
इस विलक्षण काव्य कृति 'मूकमाटी' के माध्यम से महान् सन्त, जैनत्व के निष्ठावान् साधक, अहिंसा एवं संयम व्रत के दृढव्रती आचार्य श्री विद्यासागरजी ने तत्त्वत: चार खण्डों के रूपक द्वारा चारों पुरुषार्थों – 'अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष' का सरस, सुबोध एवं सहज शैली में अनुपम विवेचन किया है। 'मूकमाटी' काव्य की भाषा तो इतनी समर्थ, सक्षम और अर्थवती बन गई है, मानों वह सन्त कवि के भावों की चिर अनुचरी ही हो । सटीक शब्द चयन, पद मैत्री तथा मानवीकरण अलंकार तथा संवादात्मक शैली ने कवि की भाव-मुक्ताओं को निखार दिया है।
सन्त कवि आचार्य विद्यासागरजी का काव्य ग्रन्थ 'मूकमाटी' उनकी दिव्य साधना का ऐसा अमृत जल है, जो मन और तन को सहज ही दोषमुक्त करके भावालोक प्रदान करता है । कवि निर्विवाद रूप से 'महापुरुष' हैं, जिनका लक्षण उन्हीं के शब्दों में ध्वनित हो रहा है :
"महापुरुष प्रकाश में नहीं आते/आना भी नहीं चाहते, प्रकाश-प्रदान में ही/उन्हें रस आता है ।/यह बात निराली है, कि प्रकाश सब को प्रकाशित करेगा ही/स्व हो या पर, 'प्रकाश्य' भर को ! ...मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं ।/और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं। इस लेखनी की भी यही भावना है-/कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक/जागृत"जीवित "अजित !" (पृ. २४५) निःसन्देह, उदात्त भाव-मुक्ताओं का अथाह सागर बन सकने वाली यह महनीय काव्य-कृति, जो इस राष्ट्र की संजीवनी शक्तिरूपा संस्कृति को समाहित करके जीवन को उपकृत कर रही है, आगामी असीम काल तक 'जागृत "जीवित ''अजित' रहेगी; इसलिए नहीं कि यह किसी स्वनाम धन्य कवि की कृति है, प्रत्युत इसलिए कि यह कृति से भी बढ़कर 'संस्कृति' है; एक महान् सन्त की साधना से दीप्त भावों की सतत जाज्वल्यमान मुक्तावली है।
पृष्ठ १५८ माँ की गोद में बालक.... बालक का मुख छिपा लेती है।