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________________ 222 :: मूकमाटी-मीमांसा अनेकान्त दृष्टि: 'मूकमाटी' काव्य के यशस्वी प्रणेता आचार्य श्री विद्यासागरजी जैन-धर्म एवं दर्शन के गहन अध्येता एवं साधक सन्त हैं, अत: यत्र-तत्र प्रसंगवश जैनत्व के मूलमन्त्र 'अहिंसा', 'संयम' आदि का सारपूर्ण विवेचन उन्होंने इस काव्य कृति में किया है। ‘कुम्भ' पर कुम्भकार द्वारा की गई विविधमुखी चित्रकारी के रोचक प्रसंग में कविश्री ने 'अनेकान्त दृष्टि' का सम्यक् विवेचन, बीजाक्षरों 'ही' तथा 'भी' के गहन विश्लेषण के माध्यम से किया है : "अब दर्शक को दर्शन होता है - / कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का । / ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं । 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है / 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । ” (पृ. १७२) और फिर आचार्यप्रवर इन बीजाक्षरों की सहज व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं : 66 ''ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को / 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है /'भी' वस्तु के भीतरी भाग को भी छूता है, 'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था । यही कारण कि राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी !” (पृ. १७३) इतना ही नहीं, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक सन्दर्भों के बाद कवि जब 'ही' तथा 'भी' का विश्लेषण सामाजिक तथा राजनैतिक सन्दर्भों में करते हैं, तो सुखद आश्चर्य-सा होता है : 46 ''भी' के आस-पास / बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य, / किन्तु भीड़ नहीं, 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है । / लोक में लोकतन्त्र का नीड़ तब तक सुरक्षित रहेगा / जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा । 'भी' से स्वच्छन्दता - मदान्धता मिटती है / स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं, सद्विचार सदाचार के बीज / 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं ।" (पृ. १७३) निश्चय ही 'मूकमाटी' की अनन्त भाव- मुक्ताओं में 'ही' तथा 'भी' का बोध कराने वाली यह 'अनेकान्त' रूपी भावमुक्ता इस काव्य कृति का शृंगार है, जन-मन की पुकार है ! तभी तो कवि कहता है : "प्रभु से प्रार्थना है, कि /'ही' से हीन हो जगत् यह अभी हो या कभी भी हो /'भी' से भेंट सभी की हो ।” (पृ. १७३) यह समष्टि -कल्याण-चेतना 'मूकमाटी' का प्राण तत्त्व है । जीवन का परम लक्ष्य : 'मूकमाटी' काव्य का तृतीय खण्ड है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन', जिसके माध्यम से कवि-सन्त आचार्य विद्यासागरजी अनेक रूपकों के माध्यम से जीवन का परम लक्ष्य बताने का उपक्रम करते हैं । सूत्रशैली में कवि ने सत्य कहा है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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