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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 213 को परतन्त्र बनाने वाला बताया है : "परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम,/पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला!" (पृ. ३६६) धनिकों विशेषकर कृपण धनिकों की कृपणता पर कवि ने करारा व्यंग्य किया है। पहले तो वे किसी को देते ही नहीं हैं और यदि देते भी हैं तो उनका देना न देने के बराबर होता है । काकतालीय न्याय से कवि ने इसे सिद्ध किया है। जिस प्रकार ओस कणों से, लवण कणों से प्यास नहीं बुझती उसी प्रकार धनिकों से प्राप्त धन से प्यास नहीं बुझती, द्विगुणित हो जाती है। कृपण धनिकों की कृपा निर्धनों पर नहीं होती, कृपणता पर होती है । इसी बात को लेकर कवि का कथन दर्शनीय है : "अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है,/उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं,/काकतालीय-न्याय से कुछ मिल भी जाय/वह मिलन लवण-मिश्रित होता है पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।" (पृ. ३८५) आज पाणिग्रहण को प्राण-ग्रहण का पर्याय बताते हुए कवि ने मत्कुण (खटमल) के माध्यम से लोभी आदमियों की प्रकृति-प्रवृत्ति का जो वर्णन किया है वह तो अत्यन्त ही मार्मिक है । लोभी आदमी सेवकों से सेवा तो बहुत लेते हैं परन्तु सेवा के बदले में वेतन भी नहीं देते और देते भी हैं तो बड़ी दुर्भावना के साथ, मनोमालिन्य के साथ । मनु की सन्तान मनुष्य का ऐसा व्यवहार ! ऐसे मनुष्य मानवता पर कलंक हैं जो मानव को मानव न मानकर पशु मानते हैं और उन से बोझा उठवाते हैं। रुधिर पीने वाले मत्कुण द्वारा रुधिर पीने वाले लोभी को दिया गया यह उपदेश-कथन कितना सार्थक है, देखिए : "लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं। प्रायः अनुचित रूप से/सेवकों से सेवा लेते/और वेतन का वितरण भी अनुचित ही।/ये अपने को बताते मनु की सन्तान !/महामना मानव !/देने का नाम सुनते ही इनके उदार हाथों में/पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी, एकाध बूंद के रूप में जो कुछ दिया जाता या देना पड़ता/वह दुर्भावना के साथ ही।/जिसे पाने वाले पचा न पाते सही अन्यथा/हमारा रुधिर लाल होकर भी/इतना दुर्गन्ध क्यों ?" (पृ.३८६-३८७) श्रम व कर्म को सर्वोच्च प्राथमिकता कर्मण्य पुरुष की वन्दना सदैव से होती आई है और अकर्मण्यों का अपमान और निरादर होता आया है। अकर्मण्यों को आलसी कहा जाता है और वे कर्मभूमि पर भार कहलाते हैं। कर्मशील मनुष्यों के लिए तो यह वसुन्धरा वसुमती बन जाती है। वसुन्धरा का भोग भी वही कर पाते हैं, जो कर्मशील होते हैं। श्रम को शक्ति कहा जाता है और जो श्रमशील हैं वे ही धरा पर स्वर्ग उतार कर ला सकते हैं। श्रीमद् भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने बहुत पहले कर्म पर बल
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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