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________________ 'मूकमाटी' : आत्मिक आरोहण की हिरण्यमयता डॉ. जनार्दन उपाध्याय प्रस्तुत काव्य की संरचना आधुनिक काव्य धारा की विशिष्ट उपलब्धि है। सन्त पुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपनी तपश्चर्या से प्राप्त आध्यात्मिक मूल्यों की काव्यात्मक व्यंजना की है। परिणामत: प्रस्तुत काव्य अध्यात्म एवं कविता का अद्वय बोध कराता है। जो भी जीवन दर्शन एवं सत्य व्यंजित है, वह अनुभवैकगम्य है । वे इस काव्य में आरोपित नहीं लगते, अपितु प्रसंग एवं परिवेश से स्वत: निस्सृत हैं । अनुभवैकगम्य संवेदना को विचारों की परिधि में पचा कर ऐसा काव्यात्मक सौन्दर्य प्रस्तुत किया गया है जो जनमानस को सहज ही आन्दोलित, हिल्लोलित एवं उल्लसित करता है । 1 सर्जनात्मक कल्पना के उन्मेष क्षण में वस्तु का पदार्थगत संवेदन और बोध नहीं होता है । वहाँ वस्तु की पदार्थिकता की जगह उसकी तात्त्विकता प्रतिभासित होती है। मानवीय विकास यात्रा समतल नहीं है, क्योंकि समतलता देश एवं जड़ का गुण है । मनुष्य में देश एवं जड़ के साथ ही काल एवं चेतना का तद्वत् योग है। देश-काल की समन्वित शक्ति ही मानव है । प्रस्तुत काव्य में मंगल घट का सृष्टित्व पदार्थ नहीं है, चेतना है । इस चेतनत्व को चिन्तन से ही अनुभावित किया जा सकता है। मिट्टी का छोटा-सा घट रचनाकार के लिए 'आर्टि फैक्ट' का काम करता है । यह घट उसके संस्पर्श से ‘सत्यं, शिवं सुन्दरम्' (The Good The Beautiful, The Truth) की अनुभूति कराता है। उसके आलोक में रूप से परे ‘अरूप, 'अपरूप, 'पारस रूप' के शाश्वत सौन्दर्य का साक्षात्कार होता है। मिट्टी तुच्छ है, पर कुम्भकार के हाथों सज, सँवर, पूर्ण शुद्ध हो मंगल घट बन जाती है। पर रचना तभी सार्थक हो पाती है जब वह नि:शेष भाव से गुरु के पाद प्रक्षालन में लीन हो जाय और अन्तिम चरम उपास्य अर्हन्त देव से तदाकारिता का रागात्मक संवेदन करने लगे । 'मूकमाटी' की संरचना ही कुछ इस प्रकार की है, जो परिशोधन की प्रक्रिया से जड़ अशुद्ध, मिट्टी का शोधन कर उसे शिवयुक्त करती है। मिट्टी का घट 'मंगल घट' बन कर 'सत्यं शिवं, सुन्दरम्' को रूपायित करने लगता है । 'मूकमाटी' का सर्जन चेतना की विकास यात्रा है। परिणामतः यहाँ ऐहिक जीवन की कथा वर्णित न होकर मानवीय आत्मा के उद्धार की गाथा व्यंजित है । इससे यह मानव चेतना का महाकाव्य बन जाता है। ऐहिक घटनाओं में जो भौतिक विकास होता है, वह चेतना में घटित घटनाओं में नहीं होता । परम्परित काव्य की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के विपरीत इस काव्य में काव्य की सम्पूर्ण प्रवृत्ति के साथ कला एक स्तर तक अन्तर्मुखी हो गई है । अमूर्त भावों को बिम्बाधायक शब्दों से मूर्तरूप दिया गया है। यह नायक का 'अभिधा व्यापार' और आज की 'सम्बद्ध बिम्ब योजना' (आई. ए. रिचर्ड्स) का उत्कर्ष अभिधार्थ ज्ञान में है। इसमें यत्र-तत्र कठिनाई है, क्योंकि कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग है जिनकी व्याख्या अपेक्षित है । ये शब्द भी प्रायः दो प्रकार के हैं- सांस्कृतिक एवं दार्शनिक, यथा : "आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है और/ है यानी चिर - सत् / यही सत्य है यही तथ्य !” (पृ. १८५) इन पंक्तियों का सम्यक् अर्थबोध 'उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य - युक्तं सत्' सूत्र के सन्दर्भ में है। ऐसे काव्य में जहाँ वर्णनात्मकता है, वहाँ सम्प्रेषण सार्थक, शब्द निर्मल और अनुभव से अनुरंजित है । उदाहरण द्रष्टव्य है : " सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, 0
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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