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________________ xxiv :: मूकमाटी-मीमांसा प्र. मा. - इसमें कहीं-कहीं ग्रामीण शब्दों के प्रयोग भी आ जाते हैं, जैसे 'जघन' शब्द (पृ. २२७) आपने लिखा है । इसका हिन्दी में अर्थ अच्छा नहीं होता । आपने कन्नड़ अर्थ में शायद लिखा है ? दर्शन को इस तरह काव्य रूप में प्रस्तुत करना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि मैं मानता हूँ, क्योंकि जितने भी दर्शन के बारे में महाकाव्य हैं, वे बहुत कुछ क्लिष्ट हो जाते हैं जबकी ये ('मूकमाटी') क्लिष्ट नहीं है। इसका प्रभाव जो है-प्रसाद गुण बहुत बड़ा है। यह बराबर प्रवहमान् चलता जाता है, क्योंकि इसके पीछे आपकी जो चेतना है वह निरन्तर आपको आगे ठेलती हुई चली जाती है। आप बहुत स्पष्ट हैं। आपका जो उद्देश्य है, आपके कुम्भ का जो भाव है वह बहुत स्पष्ट है। बहुत-बहुत धन्यवाद । हम बहुत उपकृत हुए। आपके काव्य को पढ़कर के बहुत लाभान्वित हुए। ये जिज्ञासाएँ तो यूँ ही थीं, हमारी मूर्खता या हमारी सीमा का -- जानने के लिए। लेकिन लोगों तक पहुँचने में इसे समय लगेगा। जब अन्तरिक्ष में लोग गए तो उनका भार कम हो गया- लोगों को जैसे आसमान में तैरना पड़ा। इसको ('मूकमाटी') पढ़ते समय ऐसा ही आभास होता है । जैसे हम कहीं स्पेश में जा रहे हों। ज़मीन पर एकदम पैर नहीं टिकते। उन जैसी ही हमारी उपलब्धि है । और कुछ पूछना है किसी को ? इसमें 'प्रास' बहुत आते हैं। शब्दों की क्रीड़ा, अनुरमण, उसका जो है अवलोड़न "तो क्या ये सब सहज रूप से हुआ या आप कहीं-कहीं जान-बूझ कर ले आए हैं ? आ. वि. - अर्थाभिव्यक्ति अच्छी हो तो उसके लिए कोई विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती । प्र. मा. - शब्दाधिकार बहुत हैं इसमें । शब्द और अर्थ को आप कैसे मानते हैं ? शब्द पहले आता है आपके मन में या अर्थ पहले आता है ? आ. वि. - हम तो भाव से ज्ञान की ओर, मतलब बोध से शब्द की ओर बढ़ते हैं । हमारी कविता की यात्रा हमेशा भीतर से बाहर की ओर होती है। प्र. मा. - तो शब्द कहाँ हैं- बाहर हैं, भीतर हैं या बीच में हैं ? आ. वि. - भाव भीतर हैं और उन्हें शब्द के आलम्बन के लिए बाहर आना पड़ता है। प्र. मा. - कभी आपको ऐसा नहीं लगा कि किसी शब्द के लिए आपको रुकना पड़ा हो ?. आ. वि. - नहीं, नहीं। अपने भाव साथ जब शब्द जुड़ता है तब बहुत भारी हो जाता है । तब अपने चिन्तन के लिए कोई क्षति नहीं पहुँचती और शब्द अपने आप मिलते चले जाते हैं। इस की ('मूकमाटी') एक विशेषता कि हमने रात में कभी भी नहीं लिखा, चिन्तन के उपरान्त दिन में ही लिखा । प्र. मा. - इतना बड़ा जो 'अभिधान राजेन्द्र कोश' उन्होंने बनाया, वो भी रात को स्याही को सुखाकर रख देते थे । दिन-दिन में स्मृति से लिखते थे । यह 'मूकमाटी' भी बहुत अद्भुत काव्य है, क्योंकि और किसी जैन मुनि ने ऐसा महाकाव्य लिखा हो, ध्यान में नहीं आता । इस तरह के अमूर्त विषय पर किसी ने कार्य किया हो, ऐसा भी ध्यान में नहीं आता । यह बहुत आधुनिक है मेरे मत से, क्योंकि ये विज्ञान के लिए भी प्रेरित करता है । आज विज्ञान की जो खिड़कियाँ खुल रहीं हैं, विभिन्न विद्वान् लिख रहे हैं - 'डॉन्स ऑफ शिवा' आदि विदेशों में जो लोग हैं वो इसी तरफ आ रहे हैं, इसी भारतीय मनीषा का जो चरम बिन्दु है। सारे भौतिकवादी चिन्तन, सारे द्वन्द्वात्मक चिन्तन सीमित हो गए हैं, वे भी धीरे-धीरे वहीं पर आ रहे हैं उसी बिन्दु पर । उसकी ओर ही संकेत करता है ये ग्रन्थ । इसीलिये मैं इसको 'फ़्यूचर पोयट्री' यानी भविष्यवादी काव्य, जैसा कि अरविन्द ने कहा है, इसे बहुत अच्छा दिशादर्शक मानता हूँ । अन्य कवियों के लिए भी बहुत प्रेरणादायक ग्रन्थ है ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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