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मूकमाटी-मीमांसा :: 181 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है 'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है, 'ही' पश्चिमी-सभ्यता है
'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता।" (पृ. १७३) एक अन्य सन्दर्भ में लगे हाथ ही भारतीय एवं पाश्चात्य सभ्यता का तुलनात्मक विवेचन भी 'मूकमाटी' से प्रस्तुत कर दिया जाना उचित होगा :
"पश्चिमी सभ्यता/आक्रमण की निषेधिका नहीं है अपितु !/आक्रमण-शीला गरीयसी है/जिसकी आँखों में विनाश की लीला विभीषिका/घूरती रहती है सदा सदोदिता
और/महामना जिस ओर/अभिनिष्क्रमण कर गये सब कुछ तज कर, वन गये/नग्न, अपने में मग्न बन गये उसी ओर"/उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका
भारतीय संस्कृति है/सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।" (पृ. १०२-१०३) वाक्य : कुछ वाक्यों एवं शब्दों पर टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय दार्शनिक क्षेत्र की एक प्रसिद्ध उक्ति है : "संसरति इति संसारः।" आचार्य श्री ने 'मूकमाटी' में उसकी सरल व्याख्या इस प्रकार की है :
"सृ धातु गति के अर्थ में आती है,/सं यानी समीचीन सार यानी सरकना "/जो सम्यक् सरकता है
वह संसार कहलाता है।” (पृ. १६१) व्याकरण शास्त्र का एक सूत्र है : “स्वतन्त्र: कर्ता' (जैनेन्द्र व्याकरण, १/२/२४)। इसकी प्रश्नात्मक विकृति देखें :
"प्रति पदार्थ स्वतन्त्र है।/कर्ता स्वतन्त्र होता हैयह सिद्धान्त सदोष है क्या ?/ होने' रूप क्रिया के साथ-साथ
'करने' रूप क्रिया भी तो"/कोष में है ना!" (पृ.३४८) शब्द : मूकमाटी' में शब्दों के विपरीत अक्षर क्रम द्वारा कुछ स्थानों पर नए शब्दों का प्रयोग किया गया है । यथा : दम - मद, नाली-लीना, नदी-दीन, समता-तामस आदि । यह कोरी, मात्र इच्छा प्रसूत, कल्पनाकारी नहीं अपितु भाषा एवं अर्थ के साभिप्राय, सुचारु आदान-प्रदान की एक मान्य विधा है, जो वेदों में भी उपस्थित है । एक उदाहरण से उसकी पुष्टि होती है : ऋग्वेद के ‘अग्निसूक्त' (१/१/७) में एक मन्त्र है :
"उप त्वाग्ने ! दिवेदिवे, दोषास्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि।" वेद-सविता, अजमेर (मासिक) के फरवरी १९९१ अंक में वेद मर्मज्ञ डॉ. फतह सिंह ने उक्त मन्त्र में प्रयुक्त