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________________ O " तुम्हारी दृष्टि का अपराध है वह / क्योंकि परिधि की ओर देखने से / चेतन का पतन होता है उपनिषद् में भी बाह्योन्मुखी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करने की बात कही गई है। 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:' इसी तथ्य की ओर संकेत करता है । जब तक स्वभाव की अनभिज्ञता रहेगी, जब तक स्वरूप-बोध नहीं होगा तब तक मोहावरण भंग नहीं हो सकता : O O और/परम-केन्द्र की ओर देखने से / चेतन का जतन होता है । परिधि में भ्रमण होता है / जीवन यूँ ही गुज़र जाता है, केन्द्र में रमण होता है / जीवन सुखी नज़र आता है।" (पृ. १६२) मोह एवं मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनके परिणामों को आचार्य ने बड़े सुन्दर ढंग से स्थान-स्थान पर व्यक्त किया है। उनकी दृष्टि में : मूकमाटी-मीमांसा :: 165 "यह देही मतिमन्द / कभी-कभी / रस्सी को सर्प समझकर विषयों से हीन होता है तो कभी / सर्प को रस्सी समझ कर विषयों में लीन होता है । / यह सब मोह की महिमा है इस महिमा का अन्त / तब तक हो नहीं सकता स्वभाव की अनभिज्ञता / जीवित रहेगी जब तक ।” (पृ. ४६२) " वासना का विलास / मोह है, / दया का विकास / मोक्ष हैएक जीवन को बुरी तरह / जलाती है / भयंकर है, अंगार है ! एक जीवन को पूरी तरह / जिलाती है " पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है । और / अन्यत्र रमना ही / भ्रमना है / मोह है, संसार है ।" (पृ. ९३ ) " अपने को छोड़कर / पर- पदार्थ से प्रभावित होना ही / मोह का परिणाम है और/ सब को छोड़कर / अपने आप में भावित होना ही मोक्ष का धाम है ।" (पृ. १०९ - ११० ) उक्त पंक्तियों में आचार्य ने जैन दर्शन और उपनिषद् दर्शन के तत्त्वों को गूँथ दिया है। / शुभंकर है, शृंगार है।" (पृ. ३८) : मोह और मोक्ष की ओर ले जाने वाला यह मन ही है। उपनिषद् में भी मन को ही बन्धन एवं मोक्ष का कारण कहा गया है। स्थिर मन, जिसे योग में समाहित चित्त या समाधि कहा गया है, मोक्ष का कारण माना गया है। जबकि अस्थिर मन बन्धन का कारण " स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है / और / अस्थिर मन ही पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, / एक सुख का सोपान है एक दुःख का सोपान है।" (पृ. १०९) यह संसार इस मन की छलना है। यह माया की खान है। इसी की छाया में 'मान पनपता है'। इसीलिए कवि मन की गुलामी से मुक्त होने की बात कही है। न-'मन' स्थिति को प्राप्त कर ही सच्चा 'समण' मानव बन सकता है । यही मन दूषित होने पर अशुभ कर्मों के द्वारा बन्धन का कारण बन जाता है ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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