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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 155 इसकी पीड़ा अव्यक्ता है/व्यक्त किसके सम्मुख करूँ ! क्रम-हीना हूँ/पराक्रम से रीता/विपरीता है इसकी भाग्य रेखा । यातनायें पीड़ायें ये !/कितनी तरह की वेदनायें/कितनी "और आगे कब तक "पता नहीं/इनका छोर है या नहीं!/श्वास-श्वास पर नासिका बन्द कर/आर्त-घुली चूंट/बस/पीती ही आ रही हूँ/और इस घटना से कहीं/दूसरे दुःखित न हों/मुख पर घूघट लाती हूँ घुटन छुपाती-छुपाती/"चूंट पीती ही जा रही हूँ,/केवल कहने को जीती ही आ रही हूँ।/इस पर्याय की/इति कब होगी?/इस काया की च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ "इसे !/इसका जीवन यह उन्नत होगा, या नहीं/अनगिन गुण पाकर/अवनत होगा, या नहीं कुछ उपाय करो माँ !/खुद अपाय हरो माँ !/और सुनो, विलम्ब मत करो पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ४-५) उपर्युक्त पंक्तियों में एक विधवा भारतीय नारी--जिसे समाज पतिता समझती है, उसे पातित करने का प्रयास करती है- की मर्मान्तक पीड़ा छिपी हुई है, जिसे वह औरों के सामने खुले रूप में व्यंजित न कर पाने के कारण अपनी माँ के सामने सब कुछ बखान कर उसका मार्गदर्शन और सान्त्वना चाहती है। ये पंक्तियाँ बन्धन में पड़ी हुई पतित और ठुकराई हुई आत्मा को भी लक्षित कर रही हैं जो सब प्रकार के बन्धनों और पीड़ाओं से छूटने का मार्ग चाहती है । यह काव्य माटी की छटपटाहट, पीड़ा, बन्धन, बन्धन विमुक्ति का मार्ग और बन्धन मुक्ति- सब कुछ बतलाता हुआ समाप्त होता है । बीच में कवि का शब्द बोधन और शोधन चलता है। इसकी कुछ झाँकियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं : अति और इति : "अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और/इति के बिना अथ का दर्शन असम्भव !/अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ.३३) दया: "दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है।" (पृ. ३७) आजकल कुछ लोग यह कहते हैं कि पर पर दया करना बहिर्दृष्टि है । ऐसे लोगों के प्रति आचार्यश्री का कहना है कि पर पर दया करना बहिर्दृष्टि है- ऐसी एकान्त धारणा से अध्यात्म की विराधना होती है, क्योंकि स्व के साथ पर का और पर के साथ स्व का ज्ञान होता ही है। यह बात दूसरी है कि कभी किसी की मुख्यता हो तो कभी किसी की गौणता हो । उदाहरणार्थ चन्द्रमण्डल को देखते हैं तो नभमण्डल भी दिखाई देता है। पर की दया करने से स्व (निजात्मा) की याद आती है और स्व की याद ही स्व-दया है । दया का विलोम याद होता ही है (पृ. ३७-३८)। करुणा : अधूरी दया-करुणा मोह का अंश नहीं है अपितु आंशिक मोह का ध्वंस है । वासना की जीवन परिधि अचेतन है-तन है । दया-करुणा की कोई सीमा नहीं है । वह निरवधि है । करुणा का केन्द्र संवेदन धर्मा चेतन है जो कि पीयूष (अमृत) का केतन (घर) है । करुणा की कर्णिका से अविरल (निरन्तर) समता की सुगन्ध झरती है । ऐसी स्थिति में कोई नहीं कह सकता है कि करुणा का वासना से सम्बन्ध है (पृ. ३९)। मोह और मोक्ष : वासना का विलास मोह है । दया का विकास मोक्ष है (पृ. ३८) । अपने को छोड़कर पर-पदार्थ से
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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