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________________ 122 :: मूकमाटी-मीमांसा कवि स्वार्थ के कारण देश एवं समाज का अहित करने वाले वेतनभोगियों पर कितना मार्मिक व्यंग करता है : " वेतन वाले वतन की ओर / कम ध्यान दे पाते हैं / और चेतन वाले तन की ओर / कब ध्यान दे पाते हैं ?" (पृ. १२३ ) (यहाँ वेतन से तात्पर्य अर्थ की ओर दृष्टि रखने से है न कि मात्र कर्मचारी वर्ग से एवं चेतन से तात्पर्य परमार्थ की ओर दृष्टि रखने से है ।) 1 मनुष्य के जीवन की सार्थकता है कि वह अपने कर्तव्य पथ पर ही अनेक कष्टों में भी दृढ़ता से डटा रहे । यही आस्था की सच्ची पहचान है : " इसीलिए तो / राजा का मरण वह / रण में हुआ करता है प्रजा का रक्षण करते हुए, / और / महाराज का मरण वह वन में हुआ करता है/ ध्वजा का रक्षण करते हुए जिस ध्वजा की छाँव में / सारी धरती जीवित है सानन्द सुखमय श्वास स्वीकारती हुई !” (पृ. १२३ ) कवि माटी और पल्लव के मध्य संवाद योजना प्रस्तुत कर मान, वीर रस, रौद्र रस, कषाय, हास्य, त्रिगुण आदि भावों को विस्तार से समझाता है। साधक अब 'घाम नहीं धाम, राग नहीं पराग' का आकांक्षी बने, इसी तथ्य की ओर आकर्षित रहता है । मनुष्य का जीवन संगीतमय अर्थात् सही अर्थों में गतिमय - आनन्दमय बने, उस पर अपनी नवीन दृष्टि प्रस्तुत करते हुए आचार्य कहते हैं : “संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है और/प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है मेरा संगी संगीत है / सप्त-स्वरों से अतीत !” (पृ. १४४-१४५) माटी तो त्यागमयी है । मिटने का आनन्द वही जानती है । कवि उस आनन्द को लेखनी से भी व्यक्त करता है। आज के मानव की विडम्बना है कि वह आदि पुरुष द्वारा निर्देशित पथ पर चल ही नहीं रहा है। आज कथनी करने वालों की भीड़ जरूर बढ़ी है पर चलने वालों का अभाव ही है : " चारित्र से दूर रह कर / केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की / भीड़ के कारण ! ... जिसे पथ दिखाया जा रहा है / वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं, औरों को चलाना चाहता है / और इन चालाक, चालकों की संख्या अनगिन है ।" (पृ. १५२) इसी प्रकार करुणा, उसकी अवस्था, पात्रता, परिणाम की व्याख्या आचार्य कवि उदाहरण द्वारा समझाते हैं । उसकी भावना पर प्रकाश डालते हैं । आचार्य इस प्रसंग में भावुक कवि अधिक हैं : "इस करुणा का स्वाद / किन शब्दों में कहूँ !
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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