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________________ 'मूकमाटी': दिव्य मानव का अप्रतिम काव्यावदान डॉ. सूर्य नारायण द्विवेदी 'मूकमाटी' नाम से स्पष्ट है कि कृति का वर्ण्य विषय अत्यन्त सामान्य स्तर से चुना गया है, किन्तु अपनी प्रतिष्ठा में असामान्य, दिव्य एवं अप्रतिम भी है । वास्तव में जिस ओर सामान्य कवि का ध्यान भी नहीं जाता, असामान्य प्रतिभाएँ वहाँ से ऐसे स्थल निकाल लेती हैं, जो कोयले को हीरे में बदलने जैसी स्थिति जैसा होता है। साथ ही असामान्य लोगों में भी ऐसे परम साधक होते हैं जो न केवल सामान्य में असामान्यता को ढूँढ़ लेते हैं अपितु उसमें विजड़ित किन्तु परम संवेदनात्मक वैचारिक वैभव एवं विचारात्मक संवेदनाओं से सीधे जुड़कर सुविचारित रमणीय रूप में उसका ऐसा आगान करते हैं कि मानवीय चेतना को उनके प्रयास एवं अनन्य साधारणता पर सुखद विस्मय होता है। 'मूकमाटी' को सामने पाकर शीर्षक से प्रतिपादन तक के प्रत्येक स्तर पर मुझे ऐसा ही लगा। नहीं जानता परमाचार्य विद्यासागर की स्वयं की आध्यात्मिक ऊँचाई क्या है ? और यह भी नहीं कि उन्होंने और क्या-क्या, और कैसा लिखा है ? पर 'मूकमाटी' मेरी दृष्टि में अकेली वह कृति हो सकती है जो उनके भीतर बैठे दिव्य मानव की एक झलक दे सके। ___ 'मूकमाटी' का सृजन अप्रत्याशित तो नहीं पर गहन संवेदनात्मक अनुभूति की अकृत्रिम अभिव्यक्ति अवश्य है। माटी जो कवियों के सृजन का अपने उर्वर रूपों, गुणों, आकृतियों एवं प्रकृतिपरक अवदानों के कारण चाहे उद्दीपक रही हो, पर विभाव रूप में एवं आलम्बन विभाव के रूप में उसका ग्रहण विरले ही रचनाकारों ने किया है । सुना है, कतिपय अवतारों एवं तीर्थंकरों तक ने माटी का स्वाद लिया था और कई-कई रचनाकारों ने कवि प्रौढोक्ति के रूप में या कवि निबद्ध वक्त प्रौढोक्ति रूप में उसका वर्णन भी किया है। पर माटी की पीड़ा से किसी का नाता नहीं. और वैसा तो एकदम सामने नहीं आया जैसा आचार्यप्रवर विद्यासागर ने किया है । माटी की जड़ता जगत् प्रख्यात है और उसकी मूकता तो और भी । क्योंकि माटी से जुड़ा चेतन समुदाय उसका सम्मान करे या अपमान; सत्प्रयोग करे या दुष्प्रयोग, उसकी असाधारण चुप्पी किसी से छिपी नहीं पर उसकी इस निरीहता की ओर किसका ध्यान गया ? सच तो यह है कि ऐसा प्रयास ऐसे महापुरुष के द्वारा सम्भव है जो पावनतम, समाधिस्थ स्थिति में वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थितियों एवं भावनाओं का वैचारिक प्रत्यक्ष करें। मुनीन्द्र श्री विद्यासागर इस प्रयास में इसीलिए कृतकार्य हो सके हैं, क्योंकि उन्होंने साधना एवं आराधना के बल पर ऐसी शक्ति पा ली है जो उन्हें न केवल जड़ एवं चेतन के आन्तर से जोड़ती है अपितु स्वयं उनके हृदय को निरर्गल भावुकता से जोड़ती हुई अभिव्यक्तिमुखी भी हो सकी है। मैं साहस के साथ यह बात कहना चाहता हूँ कि नींव से पावनतम निर्मिति तक इस प्रकार काव्यात्मक रूप में सृजन निश्चित ही आचार्य विद्यासागर का अभिनव प्रयोग है, जहाँ बिना किसी असत् आग्रह, दुराग्रह या पूर्वाग्रह के बात को उसकी सम्पूर्ण आकृति में, शब्दों में विन्यस्त करने का सीधा प्रयत्न है । यह दूसरी बात है कि वह प्रयास काव्यशास्त्रीय परिसीमाओं में बँधता है या नहीं। प्राचीन से अर्वाचीन तक की फैली लम्बी परम्परा के द्वारा सुझाए (काव्यात्मक) उपकरणों का, छन्दों का, प्रबन्ध बन्ध का उसमें प्रयोग है या नहीं, परम्परित समीक्षकों को 'मूकमाटी' के पढ़ते समय ठीक-ठीक वही बातें मिलेंगी या नहीं-मेरा कथन है कि वे भी यहाँ हैं पर सबसे बड़ी जो चीज़ यहाँ मिली वह है प्रतिपाद्य की यथार्थ अभिव्यक्ति । वैसे 'मूकमाटी' नव शब्द-विधान, अलंकृति विशिष्टार्थ, शैली, वैचारिकता, भाववैभव को ढूँढ़ने वालों को निराश नहीं करती, पर ऐसे तत्त्वाभिनिवेशी रचनाकार में वह भी ढूँढा जाना चाहिए जिसने एक परम विरागी, संसार से उपरत महामानव को लेखन की दिशा में प्रेरित किया है। और वह है मानव जीवन की विभीषिकाओं से गुज़रने वाले जन-सामान्य के प्राणों में नए एवं प्राणदायी आश्वासन को रेखांकित करना । घट निर्माण से पहले उस
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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