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________________ 104 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रयोग कृति को रोचक बना देता है । संस्कृतनिष्ठ भाषा में प्रवचनपरक दृष्टान्तयुक्त संवाद शैली में कथानक के रोचक विकास से कृति सार्थक हो उठी है। कलात्मक महाकाव्य, न कि प्रवचनात्मक प्रवचनकाल में प्रवचनकार और लेखनकाल में लेखक दोनों अतीत में लौट जाते हैं किन्तु साहित्यिक रस को इन दोनों से अधिक कोई आत्मसात् करता है, तो वह है श्रद्धा से अभिभूत प्रवचन - श्रवण-कला कुशल श्रोता । आचार्यश्री विद्या के अतलस्पर्शी महासागर हैं, जिनके पगतल में ज्ञान की अनन्त रत्नराजि बिखरी पड़ी है। इसलिए उनके मुखारविन्द से जो भी उच्चरित होता है वे शब्द, शब्दज्ञान के भास्वर रत्न हैं। 'मूकमाटी' स्वानुभूतियों का अक्षय भण्डार है । इसमें नहीं है ? सन्त कवि का आँखों देखा संसार है, उसका सत्-असत् रूप है, उस संसार का इतिहास है, उसका वर्तमान है और है भविष्य का स्वरूप । माटी की साधना का ऊर्ध्वमुखी फल अनश्वर सुख है, शाश्वत सुख के अधिकारी जड़चेतनपात्र हैं तथा अभिव्यंजनमयी भाषा में व्यक्त विचार, चेतना हैं । उस चेतना के भीतर प्रवाहित दर्शन और संस्कृति को सौन्दर्य से मण्डित करने वाली कला है। इस कला को रसात्मक बनाने वाले रसों का समावेश है । वीर रस के उत्साह से प्रारम्भ कर हास्य, रौद्र, क्रोध, भय, विस्मय, शृंगार, करुणा, बीभत्स, वात्सल्य की सरणियों को पार करता हुआ शिल्पी, रस का परिपाक शान्त रस में करता है (पृ. १६० ) । कला सरस हो जाती है। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना और तात्पर्याख्या शब्द शक्तियाँ इस सरस कला-काव्य को मुलम्मा चढ़ा देती हैं। I काव्य का आरम्भ सरिता तट की विशाल प्रकृति पटी पर हुआ है, जहाँ काव्य की नायिका माटी, माँ धरती से प्रार्थना करती है कि उन्नत जीवन के लिए बेटी को घर से विदा करे। उषा की लालिमा ने उसका अभिवादन किया और प्रकृति उसकी सहचरी बनकर उसका पाथेय बनी। प्रकृति ने कभी मानवी रूप में, कभी उद्दीपन रूप में, कभी प्रतीक रूप में, कभी उपदेशिका के रूप में और कभी सन्देशवाहिका के रूप में और कभी रौद्र या सौम्य रूप में 'मूकमाटी' को अपनी सेवाएँ दीं । कवि ने प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण यथाप्रसंग किया है (पृ. १, ११९, १९९, २१५, २२८, २५७, २६१, २६५, २२७, २५९-६०, ४२३) । सर्दी, गर्मी और वर्षा ऋतुओं ने भी माटी की विकास यात्रा में सहायता की। माटी में पानी देकर जब शिल्पी ने उसमें नवप्राणों का संचार किया, तभी ठिठुराने वाली शिशिर ऋतु आई (पृ. ६०६४) । कुम्भ के जलतत्त्व को सुखाने के लिए जब शिल्पी ने घट को धूप में रखा, तब प्रभाकर का प्रचण्ड रूप, चिलचिलाती धूप और धगधगाती लपटें तपन बरसाने लगीं (पृ. १७७ - १८४) । यह ग्रीष्म थी। मंगल घट का अनुगामी श्रेष्ठी परिवार आतंकवाद से परित्राण पाने के लिए जब सरिता तट में आया, तब वर्षा ऋतु ने विकराल रूप दिखायामूसलधार वर्षा होने लगी (पृ. ४३८ - ४३९) । कवि ने इसका प्रासंगिक किन्तु विस्तृत वर्णन किया है। 'मूकमाटी' के लौकिक अलंकार अलौकिक हो गए हैं। साम्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और तुल्ययोगिता के प्रयोगों की भरमार है । "कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की -सी / दशा है सेठ की " (पृ. ३५१), “लज्जा के घूँघट में/ डूबती-सी कुमुदिनी / प्रभाकर के कर- छुवन से / बचना चाहती है वह " (पृ. २), "नियम-संयम के सम्मुख / असंयम ही नहीं, यम भी / अपने घुटने टेक देता है" (पृ. २६९ ) । शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष और लाटानुप्रास के द्वारा शब्द-चमत्कर व्यंजित हैं- “किसलय ये किसलिए/किस लय में गीत गाते हैं ?” (पृ. १४१), "कभी-कभी खुशी-हँसी, / कभी निशि मषि दिखी” (पृ. १८३), "बादल दल छँट गये हैं/काजल-पल कट गये हैं/ वरना, लाली क्यों फूटी है” (पृ. ४४० ) और “प्रभा तो प्रभावित हुई, परन्तु, / प्रभाकर का पराक्रम वह / प्रभावित - पराभूत नहीं हुआ" (पृ. २०० ) । राजनीतिक व्यंग्यों में अन्योक्ति, सामाजिक परिवेश में प्रश्न तथा दार्शनिक सन्दर्भों में सन्देहालंकार का खुलकर प्रयोग हुआ है। यदि बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो शास्त्रों में परिगणित अलंकारों से अधिक अलंकार इस महाकाव्य में उपलब्ध हो जाएँगे ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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