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________________ 98 :: मूकमाटी-मीमांसा " जहाँ तक रस का सम्बन्ध है, रचयिता ने “ शान्त रस जीवन का गान है," स्वीकार किया है। 'जीवन का गान ' महत्त्वपूर्ण है। जिस जीवन में उल्लास नहीं, उत्सव नहीं, वह व्यर्थ है । तड़फती, सिसकती, बेकरार ज़िन्दगी बोझ है । जीवन में अगर संगीत आता है तो शान्त रस से ही । शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष बैचेन कर देने वाले होते हैं । वह रस-राज कैसे हो सकता है, अत: कवि ने शान्त को ही रस - राज माना । भले ही ज़िन्दगी जद्देमुसल्लसल हो, किन्तु सतत होने वाले संघर्ष से निजात पाने के लिए शान्त रस ही अनिवार्य है । वही ज़िन्दगी को "रसं लब्ध्वा वै भवति" से भर सकता है, अन्य नहीं । 'मूकमाटी' के रचयिता ने प्रेम को लोकोत्तर माना है । इस माटी के स्थूल, मांसल प्रेम को अस्वीकार कर दिया है । मांसल और वासना हमराही हैं। वासना इच्छा को कहते हैं । इच्छा सदैव अस्थाई होती है। तो, इस धरती का प्रेम कभी स्थाई नहीं हो सकता । उसमें शाश्वत बने रहने की शक्ति नहीं है । उसमें आनन्द तो होता है, किन्तु वह आनन्द, जो मिट-मिट जाता है, बना नहीं रहता । माटी के प्रेम में 'दोनों ओर पलने' की बात है । जैन सन्दर्भ मूल में ही इस शर्त को नकारता है। जैन आचार्य उसी प्रेम को प्रेम कहते हैं, जिसमें देश और काल काव्यवधान न हो जो सतत चलता रहे। वह अहिंसा का पर्यायवाची है । वह अलौकिक है - लोकोत्तर । आकाश की तरह उन्मुक्त और व्यापक । प्रश्न यह है कि यह नि:सीम प्रेम धरती के आदमी के छोटे-से दिल में कैसे आए - समाए कैसे ? उत्तर है कि जब असीम ससीम में आता है तो वह सीमा फैल कर निःसीम बन जाती है। इसी को आदमी का रूपान्तरण कहते हैं तो, ‘मूकमाटी' में प्रेम के द्वारा आदमी के रूपान्तरित होने की यह प्रक्रिया सजीव है। फ्रेंच कवि और चिन्तक वर्गसाँ का यह कथन कि " उपन्यासों और काव्यों आदि में जो प्रेम दिखाया जाता है, वह लोकोत्तर प्रेम से उधार लिया गया है", 'मूकमाटी' ने उसे सही साबित किया है। खींचतान हर जगह बुरी होती है - चाहे वह दर्शन और सिद्धान्त हो अथवा साहित्य । 'मूकमाटी' में जो शब्दचातुर्य दिखाने का प्रयास किया गया है, वह दूर की कौड़ी मारना है। यह खिलवाड़ न होता तो श्रेयस्कर होता। इससे रस में व्याघात पहुँचा है और "रसो वै सः” का जन्म नहीं हो पाया है। रस का जन्म तभी हो पाता है जब भाव-विभावअनुभाव का स्वाभाविक परिपाक हुआ हो । यह तभी सम्भव है, जब उसकी अभिव्यक्ति सहज हो । उसका मुख्य उपकरण है - शब्द | शब्द के अर्थ को चकरदण्ड देने से रस मूर्च्छित हो जाता है । 'मूकमाटी' के रचयिता एक जैनाचार्य हैं। उन्हें दर्शन का तल-स्पर्शी ज्ञान है । वे कृशकाय तपस्वी हैं । तप ही उनका जीवन है किन्तु साहित्य की ओर उनका भावात्मक अभियान मुझे अच्छा लगा । उन्होंने अध्यात्म का भावोन्मेष कर उसे सहज बना दिया है। इससे वह जनसाधारण की समझ में आ पाता है । उन्होंने हिन्दी भाषा की आधुनिक काव्यशैली को अपना कर राष्ट्र को गौरवान्वित किया है । हिन्दी भाषा भी धन्यभाक् बनी है। यह सत्य है कि प्राचीन काल से ही जैन आचार्यों ने दर्शन, सिद्धान्त और प्रतिष्ठाओं आदि में जहाँ रुचि दिखाई, वहाँ काव्य का क्षेत्र भी उनसे अछूता नहीं बचा । अनेकानेक भावपूर्ण स्तुति एवं स्तोत्र काव्यों की उन्होंने रचना की है। आज भी वे उनकी लोकप्रियता के मानस्तम्भ हैं । शंकराचार्य 'अद्वैतवाद' से नहीं, 'भज गोविन्दम्' से अधिक जाने या समझे जाते हैं । इसी प्रकार मैं समझता हूँ आचार्य श्री विद्यासागर भी 'मूकमाटी' से जन-जन के बीच लोकप्रिय होंगे। पृष्ठ १४८, सुत को प्रसूत कर··, प्रकृति माँ की आँखों में / रोती हुई करुणा,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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