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मूकमाटी-मीमांसा :: 91 आदि की, उसी से मनुष्य भौतिक जगत् के राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इन सन्तों की वाणी सार्वभौम है । इन सन्तों
देश और काल के बन्धन को तोड़ दिया है। यही कारण है सन्त काव्य विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है और प्राचीन से अर्वाचीन काल तक इसकी परम्परा प्रवाहित हो रही है। हिन्दी भाषा में 'सन्त' शब्द का प्रयोग साधारणत: किसी भी सदाचारी और पवित्रात्मा के लिए होता | अँग्रेजी का 'सेंट' शब्द वस्तुत: लैटिन सेंशियो के आधार पर निर्मित सैंक्टस शब्द से बना है, इसका अभिप्राय भी पवित्र करना है । यह ईसाई धर्म के कतिपय प्राचीन महात्माओं के लिए पवित्र आत्माओं के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है ।
आज जब कि संसार में व्यक्ति के सामने असुरक्षा का प्रश्न है, विश्व छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित है, वर्गों में विभाजित है, देश और राष्ट्र आपस में अनाम लड़ाई लड़ रहे हैं, संघर्ष के वातावरण में प्राणी मूक बन रहा है, उसका मन शंकाओं और सन्देहों से परिपूर्ण है, ऐसे समय में सन्तों की वाणियों का स्थान और महत्त्वपूर्ण हो रहा है। इस सन्दर्भ में आचार्य विद्यासागर का काव्य 'मूकमाटी' आज के साहित्य की एक प्रमुख रचना । कवि जिन विषयों को आज कविता में उठाते हैं उनसे अलग हटकर शाश्वत प्रश्नों को इस पुस्तक में आचार्यजी ने उठाया है ।
'मूकमाटी' को महाकाव्य की संज्ञा दी गई है । वास्तव में यह काव्य आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय रचना है। इसमें दार्शनिक विषय को उठाया गया है। आचार्य विद्यासागरजी स्वयं सन्त हैं । उनके चिन्तनमनन के परिणाम स्वरूप ही इस 'मूकमाटी' काव्य की रचना हुई है । सन्तों ने सदैव तपस्या, साधना करके जीवन सम्बन्धी रहस्यों की अनुभूति प्राप्त की है और उसका उद्घाटन किया है। इसका मूल मन्त्र तत्त्व दर्शन है । आज उथलपुथल के वातावरण में भी कवि की सन्त आत्मा जीवन के रहस्यों का उद्घाटन करती है। इस काव्य को खण्डों में विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है। इसके खण्ड एक 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में माटी की प्रारम्भिक दशा है। माटी कंकर - कणों से मिली-जुली है, यहाँ परिशोधन की अवस्था आती है । कुम्भकार की कल्पना में माटी का मंगल घट रचित हुआ, जिसे सार्थक रूप देना है। उसके लिए वर्णसंकर की स्थिति को हटा कर शुद्ध दशा की प्राप्ति करनी है । कवि इसी भाव को इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं :
"यथा - विधि, यथा-1 - निधि / क्षीर में नीर मिलाते ही / नीर क्षीर बन जाता है । और सुनो ! / केवल / वर्ण - रंग की अपेक्षा / गाय का क्षीर भी धवल है आक का क्षीर भी धवल है / दोनों ऊपर से विमल हैं / परन्तु परस्पर उन्हें मिलाते ही / विकार उत्पन्न होता है - / क्षीर फट जाता है
पीर बन जाता है वह ! / नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है ।
और / क्षीर का फट जाना ही / वर्ण-संकर है/ अभिशाप है
इससे यही फलित हुआ, / अलं विस्तरेण !" (पृ. ४८-४९)
मिलन का अर्थ लय होना है, यानी जहाँ द्वैत समाप्त हो, जहाँ अपने गुण-धर्म सब विलुप्त हो जाते हैं और एकाकार की भावना आती है, उसे कवि ने व्यंजित किया है
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" अरे कंकरो ! / माटी से मिलन हुआ / पर/ माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से छुवन तो हुआ / पर / माटी में घुले नहीं तुम / इतना ही नहीं, चलती चक्की में डालकर / तुम्हें पीसने पर भी / अपने गुण-धर्म / भूलते नहीं तुम भले ही / चूरण बनते, रेतिल; / माटी नहीं बनते तुम !” (पृ. ४९ )
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