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________________ 80 :: मूकमाटी-मीमांसा दिया है । जो साधनाहीन, तपस्याहीन प्रभुत्व है, वह मुक्ताओं को बटोर लेना चाहता है । उसे यह नहीं मालूम कि पुरुषार्थ के बिना, तपस्या और साधना के बिना मुक्ताओं को प्राप्त करना अधर्म है, पाप है। जो साधना में जलता है, उसे जल और ज्वलन में अन्तर अनुभव नहीं होता । वही इस मुक्ता को प्राप्त करने का अधिकारी है। कुम्भ की तपस्या स्वयम् बोल उठती है : "जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।” (पृ. २६७) लोकहित साधक शीतलता और ज्वाला में अन्तर अनुभव नहीं करता है। निरन्तर साधना से शेष, अशेष हो जाता है, भेद से अभेद हो जाता है । साधक कवि की अन्तर्भेदी दृष्टि ने इस खण्ड को अधिक उत्कर्ष प्रदान किया है । माटी को निर्मल दृष्टि और सुदृढ़ आस्था का आधार मिला है। कवि की आस्था ही रचना को परिपक्वता देती है। साधना की अग्नि ही कंचन मन को परिपक्वता देती है। परिपक्व साधना ही लोक मंगल करती है। लोक मंगल ही जीवन का अभीष्ट है। लोक मंगल की ओर मनुष्य को प्रेरित करना ही सन्त कवि का चरम लक्ष्य है। प्रकृति का चिरनूतन प्रसंग सदैव काव्य के साथ प्रवाहित होता है जिससे कविता में सौन्दर्य बढ़ जाता है । इस खण्ड की भाषा बड़ी परिष्कृत तथा प्रांजल है और भावाभिव्यंजना बड़ी सशक्त है। इस काव्य का चौथा और अन्तिम खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक से अभिहित है। इस खण्ड का कथा-फलक बहुत विस्तृत और व्यापक है । अन्तर प्रसंग भी अधिक हैं । एक लम्बी यात्रा और साधना के बाद इस सोपान पर आकर, अपरिपक्व कुम्भ पककर मंगल घट का रूप धारण करता है । जब तक कुम्भ पक नहीं जाता है तब तक कुम्भकार अपनी तपस्या और साधना में सतत लीन रहता है । अग्नि में प्रवेश दिलाकर कुम्भकार उसे सतत जलते रहने देना चाहता है । चाँदी-सी राख मंगल घट की शुभ्रता, शुद्धता और परिपक्वता की द्योतक है । कुम्भकार की कला और उसकी साधना घट को मंगलमय बनाती है, जिसमें जलरूपी मुक्ता भरे जाएंगे और वह लोकहित में संसार की तृषा को तृप्त करेगा । कवि का यह कहना निःसन्देह अनुभवगम्य है कि अपने को जलाना ही शुद्धता का परिचायक है । वही दूसरे के दोषों को भी जला सकता है जो जलकर स्वयम् परिष्कृत, सुसंस्कृत एवं सन्त प्रकृति का हो गया हो । अग्नि में सतत जलना, तपना ही कुम्भ का जीवन धर्म है । कुम्भकार स्वयम् अपने कौशल से, अपनी तपस्या से कुम्भ को कंचन रूप देकर उसके स्वागत के लिए तैयार होता है । कृति और कृती दोनों धन्य हो जाते हैं। कुम्भकार सोल्लास चाँदी-सी राख को फावड़े से हटाकर तपे हुए कुम्भ को बाहर निकालता है। कुम्भकार ने इसे मंगल रूप देने के लिए कितनी कठिन साधना की है । आज कुम्भकार की साधना का ही सुफल है कि मूकमाटी मुखर तथा प्राणवान् हो गई है । वह मंगल गान करती है। आनन्द और मंगल की संरचना ही माटी का अन्तिम लक्ष्य है और कवि जीवन का भी। कितने सोपानों को पार कर माटी ने आज कंचनमय खरा रूप धारण किया है। मूकमाटी को शब्दायमान करने का जो अथक प्रयास सन्त कवि की रचना-तपस्या ने किया है, वह नितान्त स्तुत्य है। __ अन्तत: मंगल घट का निर्माण एक हित है । दूसरा हित, जो अपने चर्मोत्कर्ष पर है, वह है प्यास की तृषा को बुझा देना । माटी की शुद्धता की साक्षी तो अग्नि ही है। अग्नि सृजनशील है। वह दोषों का परिहार करती है। कुम्भकार की श्रेष्ठता इसी में सिद्ध होती है कि वह इतनी बड़ी रचना करके भी इतना बड़ा स्रष्टा होकर भी विनम्रता की मुद्रा में
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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