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________________ 76 :: मूकमाटी-मीमांसा उपदेश, जिनके लिए कवि को स्वयं यह कहना पड़ा कि “अब ! प्रासंगिक कार्य आगे बढ़ता है," थका देते हैं। संख्याओं का चमत्कारिक खेल, शब्दों को उलट-पलट कर विलोम या विपर्यय द्वारा नए अर्थों की तलाश कहीं शाब्दिक खिलवाड़ के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। भाषिक संरचना में व्याकरणिक दोषों का दर्शन भी आलोचक कर सकते हैं, किन्तु हम पूर्व में निवेदन कर चुके हैं कि परिमाण की दृष्टि से नहीं, परिणाम की दृष्टि से कृति अपना मूल्यांकन चाहती है, जिस कारण दूषण भी भूषण बन जाते हैं। काव्य दोष, रोष का विषय नहीं अपितु सन्तोष की बात बन जाते हैं, क्योंकि इसके पीछे रचनाकार का मूल स्वर क्या है ? हाँ, खटकने वाली बात इतनी है कि ग्रन्थ के आरम्भ में कवि हिन्दू धर्म-दर्शन की आलोचना इसलिए करता है कि किसी ने जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा है । अपनी भूमिका में रचनाकार हिन्दूदर्शन की अवतारवादी भावना और ब्रह्मा को स्रष्टा मानने का खण्डन करता है किन्तु कवि की मान्यता है कि माटी स्वयं कलश नहीं बन जाती, उसका आत्म-परिष्कार करना होता है, उसे तपना होता है और आकार लेना पड़ता है । यह सारे कार्य अनायास नहीं होते, इसका कर्ता कुम्भकार होता है । इसी कुम्भकार को (हिन्दू दर्शन के अनुरूप) स्रष्टा, रचनाकार या ब्रह्मा आदि किसी भी संज्ञा से संज्ञित किया जा सकता है । इस प्रकार कुम्भकार की उद्भावना द्वारा कवि स्वयं सृष्टिकर्ता के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। इसी तरह अपनी रचना में जगह-जगह वह राम-रावण, कृष्ण आदि पौराणिक पात्रों, तत्सम्बन्धी मुहावरों, कहावतों का उल्लेख कर अपनी उदारता का भी परिचय देता है । कवि अपनी रचना का स्वयं ब्रह्मा होता है । अत: उसकी दृष्टि विराट् होती है, जिसमें संकीर्णता को कोई स्थान नहीं मिलता। 'मूकमाटी' का रचनाकार कोरा कवि नहीं है, अपितु तपःपूत के रूप में उसकी ख्याति जग-विख्यात है, जिनके लिए अपार लोकश्रद्धा समर्पित है । आचार्यश्री किसी मत या सम्प्रदाय विशेष के साधु नहीं रहे, अब वह मानव महासागर की एक ऐसी अमूल्य निधि बन गए हैं, जिन पर सबका हक है और जो सबके प्रिय हैं। अत: किसी मत या वाद की निन्दा द्वारा किसी मत की पुष्टि समादरणीय नहीं कही जा सकती । सन्त की समता और सम्यक् भाव में सारा संसार समाया है, फिर क्या अपना - क्या पराया ? सम्प्रति, कहा जा सकता है कि 'मूकमाटी' नामक काव्य कृति वैराग्य शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की ज्ञान-साधना से तपकर निकला वह कुन्दन है, जो जन आकर्षण का ही नहीं, जन श्रद्धा का केन्द्र बन गया है। कवि की चिन्तनशीलता, ज्ञानगरिमा, भाव प्रवणता, अपार करुणा, सम्यक् दृष्टि और अपने समय तथा समाज की सच्चाइयों के प्रति यथार्थ सोच के साथ ही संसार के लौकिक एवं पारमार्थिक कल्याण की कामना ने इस कृति को एक महनीय रचना के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। प्रस्तुत रचना अपनी शक्ति और सीमा भर जन-मन का कल्याण कर समाज की सोच को एक रचनात्मक नई दिशा प्रदान करेगी तथा जनता में आदर का केन्द्र बनेगी - द्विधा रहित हो, यह सहज विश्वास किया जा सकता है। पृष्ठ ४९ अरे कंकरो! मारी से मिलव तो हुआ - ... मारी नहीं बनते तुम
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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