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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 69 इसी माटी से किसी ने अमृत घट बनाया तो किसी ने दीप की रचना कर तिमिर हरन का उद्योग किया। सियाराम शरण गुप्त का घट इस माटी की कुटिल कर्कशता से कराह उठता है : "कुटिल कंकड़ों को कर्कश रज मल-मलकर सारे तन में। जाने किस निर्दय निर्मम ने मुझको बाँधा है इस बन्धन में ॥" __ हरिवंश राय बच्चन ने भले ही इस माटी से अपनी हाला के ढालने के लिए प्याला गढ़ा हो किन्तु उन्हें भी इस माटी का गुमान है, यही कारण है कि वह कह उठते हैं : "जिसे झंझा की झनक न भाए, उसे नहीं जीने का हक है, जिसे माटी की महक न भाए, उसे नहीं जीने का हक है ॥" इस प्रकार इस माटी की मूकता में तत्त्वज्ञान, आत्मदान, बलिदान और प्राणवान् पावन ऊर्जा की जो भास्वरता सन्निहित है, उसे कवि की रससिद्ध दृष्टि ही समझ सकती है। 'मूकमाटी' का विराट् परिदृश्य ___ तुच्छ-सी कहलाने वाली अनेक मुहावरों की जन्मदात्री इस माटी के दृष्टिपथ में अनन्त का विस्तार समाया है, जिसकी रूप माधुरी का पान करके माँ की मार्दव गोद में मुख पर आँचल लेकर करवट बदलता भानु निद्रा सुख छोड़ प्राची से झाँकने लगा है : 0 “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई, और 'इधर 'नीचे/निरी नीरवता छाई।" (पृ. १) "लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देती है।” (पृ. २) 'मूकमाटी' के कवि के इस चित्रण से श्री जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' के आरम्भ का वह दृश्य सहसा नयन पटल पर उभर आता है, जहाँ हिमगिरि के उत्तुंग शिखिर पर बैठा एक पुरुष विराटमय प्रकृति और उसमें समाई चेतनता को अपलक निहार रहा है : "दूर-दूर तक विस्तृत था, हिम स्तब्ध उसी के हृदय-समान, नीरवता-सी शिला-चरण से टकराता फिरता पवमान ।" और तब उषा का आगमन हुआ : - "उषा सुनहले तोर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई, उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अन्तर्निहित हुई।" “नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, जलधि लहरियों की अंगड़ाई बार-बार जाती सोने । सिन्धुसेज पर धरावधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी॥"
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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