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________________ 64 :: मूकमाटी-मीमांसा "बिना दाग है यह शिल्प/और कुशल है यह शिल्पी।/युग के आदि में इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार !/'कुं' यानी धरती/और 'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो कुम्भकार कहलाता है।" (पृ. २८) कवि ने श्रमण संस्कृति की सम्भावनाओं को और श्रमण-साधक के दिक्काल सम्बन्धों की निरन्तरता को परिभाषित करने का यत्न किया है : . "...अब शिल्पी ने/कार्य की शुरूआत में/ओंकार को नमन किया और उसने/पहले से ही/अहंकार का वमन किया है।" (पृ. २८) 0 "मृदु माटी से/लघु जाति से/मेरा यह शिल्प/निखरता है और/खर-काठी से/गुरु जाति से/वह अविलम्ब/बिखरता है।” (पृ. ४५) यहीं से इस काव्य का चित्रात्मक फलक संवेद्य हो उठा है । इससे इस कविता में रह-रहकर दो स्पष्ट तत्त्व पारस्परिक विपरीतता लेकर अपने द्वैत एवं द्वन्द्व के चरमवादी संवाद स्वरों को उच्चरित करते हैं। इन सामान्य ज्ञानात्मक प्रतिवादों का प्रयोग आलंकारिक नहीं वरन् जैन दर्शन और आधुनिकतावादी वैचारिकता का विधिवत् रूपान्तरण है। कवि का चिन्तन विवादी स्वरों से अधिक, आध्यात्मिक रागों में पर्यवसित हुआ है। माटी तो परिशोधन से रेत-कंकर मुक्त हो गई। किन्तु रेत-कंकर का रोष शिल्पी के प्रति व्यक्त हो गया : "गात की हो या जात की,/एक ही बात है हममें और माटी में/समता-सदृशता है।" (पृ. ४६) निम्न जातियों में जातीयता के विरुद्ध विद्रोही नहीं वरन् वस्तुस्थिति तथा आत्मस्थिति की एक नई पहचान की माँग है। इस गहरे अवहेलित सत्य का एक निपट और तीव्र आग्रह है यहाँ । ___ माटी में कंकर हैं तो वर्ण संकर है । घट के लिए तो कंकर (संकर) मुक्त करना आवश्यक है। कंकर पानी सोख नहीं सकता, क्योंकि उसमें दया नहीं है। कंकरों के उस पृथकवाद के आविर्भाव से उनके मान का बौना होना' और मान का अवसान लक्षित होता है । अत: कवि प्रार्थना करता है : "ओ मानातीत मार्दव-मूर्ति,/माटी माँ !/एक मन्त्र दो इसे जिससे कि यह/हीरा बने/और खरा बने कंचन-सा !" (पृ.५६) सिद्ध कुम्भकार माटी को मंगल घट में रूपान्तरित करने के लिए जल-निमित्त गाँठग्रस्त रस्सी का अवलम्ब लेता है । दाँत और रसना का प्रयोग हिंसा का प्रतीक है, अत: रसना कहती है : "मेरे स्वामी संयमी हैं/हिंसा से भयभीत,/और/अहिंसा ही जीवन है उनका । ...जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित हो/हिंसा छलती है ।” (पृ. ६४) गाँठ मुक्त कर कुम्भकार बालटी कुएँ में डालता है। तभी उसकी प्रतिच्छाया नीचे जल में मछली पर पड़ती है। उसकी मनोभावना ऊर्ध्वमुखी हो उठती है । वह कुएँ से बाहर आना चाहती है : "इस शुभ यात्रा का/एक ही प्रयोजन है,/साम्य-समता ही मेरा भोजन हो/...दिवि में, भू में/भूगर्भो में/जिया-धर्म की
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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