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________________ 'मूकमाटी' की अन्तर्ध्वनि प्रो. (डॉ.) सूर्य प्रसाद दीक्षित आधुनिक भारतीय साहित्य, दर्शन और अध्यात्म की एक अनुपम निधि है - 'मूकमाटी' । इस कृति के अवगाहन से आचार्य कवि के गहन-चिन्तन का सहज बोध होता है । जीवन के महनीय तत्त्वों को उद्घाटित करने के लिए जिस सरल, सुबोध वस्तु और शिल्प का प्रयोग किया गया है, वह अपने में नितान्त नूतन है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अध्यात्म का विशद विवेचन हुआ है। इसका प्रमुख कारण है - कवि का सन्त व्यक्तित्व । ग्रन्थ का शीर्षक कौतूहलवर्धक है । 'माटी' जैसी वस्तु को अपने काव्य का विषय बनाना उदात्तता की झलक प्रस्तुत करता है। हमें जीवन में जब कभी भी सीख लेनी हो तो प्राकृतिक उपमानों पर दृष्टिपात करना चाहिए। प्रस्तुत काव्य को सन्त कवि ने चार अध्यायों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय में 'संकर नहीं : वर्णलाभ' का वर्णन हुआ है। इसमें मिट्टी की प्रारम्भिक अवस्था का अनुशीलन है। मिट्टी के साथ-साथ और बहुत सारे तत्त्व मिले होते हैं। जब कुम्भकार को घड़ा बनाना होता है तो वह सर्वप्रथम मिट्टी को छान कर उसे शुद्ध करता है, फिर घड़े का निर्माण करता है। उसी तरह मानव के अन्तर्मन में कंकर-पत्थर रूपी बहुत से अवगुण भरे होते हैं। उसके परिशोधन के लिए सर्वप्रथम मन को छान-बीन कर शुद्ध करना है। प्रारम्भ में ही महाकाव्यों जैसे रम्य वातावरण का चित्रांकन किया गया है, जिससे अनन्तता और अलौकिकता का आभास होता है : “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,/और 'इधर 'नीचे निरी नीरवता छाई/निशा का अवसान हो रहा है उषा की अब शान हो रही है/भानु की निद्रा टूट तो गई है परन्तु अभी वह/लेटा है/माँ की मार्दव-गोद में।" (पृ. १) कोई आवश्यक नहीं कि इस जीवन साधना में अनुकूल स्थिति ही रहे। प्रतिकूल भी हो सकती है। हमें दोनों स्थितियों में स्थिरचित्त रहने का सन्देश प्रस्तुत करता है यह काव्य : "कभी-कभी/साधना के समय/ऐसी भी घाटियाँ/आ सकती हैं कि थोड़ी-सी प्रतिकूलता में/जिसकी समता वह आकाश को चूमती थी/उसे भी/विषमता की नागिन सूंघ सकती है"/और, वह राही/गुम-राह हो सकता है।" (पृ. ११-१२) सन्त-आचार्य ने अपने अध्यात्म और दर्शन चिन्तन में प्रतिकूलता का वरण दिखाकर भी उससे यथेष्ट सिद्धि की प्राप्ति की है। उनकी यह उक्ति कि केवल मीठे दही से ही नहीं, वरन् खट्टे दही से भी मक्खन निकलता है और दोनों से निकले हुए मक्खन का स्वरूप एक होता है, उसमें कोई विभेद नहीं। “और, सुनो !/मीठे दही से ही नहीं,/खट्टे से भी/समुचित मन्यन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है । इससे यही फलित हुआ/कि संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से/हर्षमय होता है।" (पृ. १३-१४)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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