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मूकमाटी-मीमांसा : : 51
इसी प्रकार मानवीकरण के साथ उपमा का निरुपमेय प्रयोग देखते ही बनता है, यथा- रस्सी बोलती है :
"मुझे क्षमा करो तुम, / मेरे निमित्त तुम्हें कष्ट हुआ । तुम्हारी / दुबली-पतली कटि वह / छिल-छुल कर और घटी कटी-सी बन गई है । " (पृ. ४८० )
काव्य में जिस छन्द का प्रयोग हुआ है वह छन्द शास्त्र में गिनाया नहीं गया । राग अथवा रागिनी से मिलकर किसी शब्द को ही वह पद की संज्ञा देता है, ऐसा भी नहीं है । भावों की स्वतन्त्रता की नाईं छन्द भी मुक्त है । इस छन्द मुक्त है, गति है और है यति भी । महाकवि निराला की भाँति कवि ने 'रबड़ छन्द' का सफल प्रयोग किया है। भावों को बखूबी व्यक्त करने की इस छन्द में पूरी ताक़त है। पढ़ने में कोई अवरोध नहीं, निर्विरोध काव्य पाठ करने में आनन्द की अनुभूति होती है । छन्द की यही मंशा होती है और कवि ने अपने नए छन्द प्रयोग से अपनी छन्दशास्त्रीय शक्ति को प्रमाणित किया है, यथा :
" एक के प्रति राग करना ही / दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है, जो रागी है और द्वेषी भी, / सन्त हो नहीं सकता वह / और नाम-धारी सन्त की उपासना से / संसार का अन्त हो नहीं सकता, सही सन्त का उपहास और होगा / ये वचन कटु हैं, पर सत्य हैं, सत्य का स्वागत हो !" (पृ. ३६३)
काव्य की भाषा प्रांजल तथा विशुद्धमती है। खड़ी बोली हिन्दी का परिष्कृत संस्करण । कविवर निराला की भाँति छन्दों का सफल प्रयोग हुआ है । विवेच्य काव्यकृति में तो महाकवि पन्त की नाईं सुघड़ शब्दावलि का अभिनव प्रयोग भी बन पड़ा है। कवि में शब्द-शिल्प का अभिनव बल है, विवेक है । काव्य में पारिभाषिक शब्दावलि के प्रयोग भी निर्बाध हुए हैं, यथा : नवधा भक्ति, उपादान, निमित्त, द्रव्य, कषाय, स्वभाव तथा आत्मा आदि अनेक लाक्षणिक शब्दों को इस प्रकार प्रयोग में लाया गया है कि उनका अभिप्राय सहज ही मुखर हो उठा है । आध्यात्मिक भावों को अभिव्यक्त करने में भाषा का सटीक प्रयोग काव्य को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता है ।
जहाँ तक शैली का प्रश्न है विवेच्य काव्य में नदिया के प्रवाह की नाईं सहज और सुगम शैली का प्रयोग हुआ है । अध्यापकीय शैली का प्रयोग वस्तुत: अभिनव ही कहा जाएगा। दरअसल कवि आचार्य है, अत: उसके सामने पाठक को समझाते हुए पाठ-पारायण का दायित्व निर्वाह करना रहा है। श्रमण एक लाक्षणिक शब्द है । कवि ने इस शब्द की पारिभाषिकता कितनी सरल और सरस शैली में व्यक्त की है कि किसी भी पाठक अथवा श्रोता को समझने में कोई व्यायाम नहीं करना पड़ता, यथा :
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'श्रम करे सो श्रमण ! / ऐसे कर्म - हीन कंगाल के / लाल-लाल गाल को पागल से पागल शृगाल भी / खाने की बात तो दूर रही, छूना भी नहीं चाहेगा ।" (पृ. ३६२)
इसी प्रकार काव्य में 'नवधा भक्ति' के विषय में अवबोध कराते हुए कवि अध्यापकीय शैली का प्रयोग करता है, यथा :
“भो स्वामिन् ! / नमोस्तु ! नमोस्तु ! नमोस्तु !
अत्र ! अत्र ! अत्र ! / तिष्ठ ! तिष्ठ ! तिष्ठ !!" (पृ. ३२२)
नवधा भक्ति का सूत्रपात होता है:
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