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मूकमाटी-मीमांसा :: 37
human father, is the lord of Tapasya, the concentrated energy of spiritual endeavour that helps us to rise from the mortal to the immortal planes. Dyumatsena, the lord of the Shining Hosts, father of Satyavan, is the Divine Mind here fallen blind, loosing its celestial kingdom of vision, and through that loss of its kingdom of glory. - Shri Aurobindo on 'Savitri'.(Author's Note)
इन प्रतीकार्थों का अभिप्राय यह नहीं है कि सारी गाथा मात्र काल्पनिक है और उसका अपना ऐतिहासिक अस्तित्व सन्दिग्ध है | इस सम्भावित भ्रम का निराकरण करते हुए स्वयं श्री अरविन्द को स्पष्ट करना पड़ा है कि “ भी यह (कथा) रूपक मात्र नहीं है; पात्र मात्र मानवीकृत गुण नहीं हैं वरन् जीवन्त और सचेतन शक्तियों के अवतार अथवा अभिव्यक्त रूप हैं जिनके स्थूल संस्पर्श में हम प्रवेश करते हैं और वे मानव की सहायतार्थ मानव देह धारण करते हैं तथा उसे उसकी मर्त्य अवस्था से दिव्य चेतना और अमर जीवन का पथ दिखाते हैं।"
Still this is not a mere allegory; the characters are not personified qualities, but incarnations or emanations of living and conscious forces with whom we can enter into concrete touch and they take human bodies in order to help man and show him the way from his mortal state to a devine consciousness and immortal life. - Sri Aurobindo on 'Savitri' (Author's Note)
अश्वपति समग्र 'सावित्री' महाकाव्य की आध्यात्मिक ऊर्जा के मेरुदण्ड हैं जिस पर सारी कथा अनेक आयामों की ओर अग्रसर होती है। ऐसा प्रतीत होता है मानों स्वयं श्री अरविन्द की सारी योगसाधना और अतिमानसिक रूपान्तर की सिद्धि का स्वरूप अश्वपति के रूप में मूर्तिमान् हो उठा है ।
अदम्य अभीप्सा और सर्वांगीण समर्पण के सहारे चेतना के ऊर्ध्वारोहण, नाना रहस्यमय भावलोकों में संचरण तथा सारी पृथ्वी एवं समग्र प्रकृति के भागवत रूपान्तर हेतु परमा शक्ति के अवतरण का विराट् संकल्पनिष्ठ आह्वान जिस तीव्र संवेग और तन्मय तत्परता के साथ वर्णित है, उसके भीतर पग-पग पर पूर्णयोग के प्रवर्तक दिव्य जीवन के द्रष्टा तथा एक समुज्ज्वल भविष्य के स्रष्टा श्री अरविन्द की निरन्तर प्रगतिमुखी, सतत विकसनशील एवं उत्तरोत्तर नवनिर्माणोन्मुख अतिमानस चेतना की भास्वर रश्मियों के दर्शन होते हैं।
'प्रतीक ऊषा' (Symbol Dawn ) से 'सनातन दिवस' (Eternal Day) तक की मंगलमयी विकासयात्रा का महाकाव्य 'सावित्री' मूलत: अश्वपति की योग साधना का ही प्रतिफल है, जो सृष्टि की जटिल पहेली की, उसकी नाना रहस्यमयी समस्याओं, विडम्बनाओं एवं सम्भावनाओं की, गहराई में प्रवेश करके क्रमशः जीवात्मा एवं परमात्मा के स्वरूप का सम्यक् साक्षात्कार करता है, अनेक गहन अन्धकारमय और ऊर्ध्व आलोकमय लोकों के बीच संचरण करता हुआ क्षुद्र अहंभाव से परमभाव तक की स्थितियों में लीन होकर जीवन और जगत् की प्रेरक शक्तियों का प्रामाणिक परिचय प्राप्त करता है और धरती की पुकार का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपने प्रबल संकल्पपूर्ण आह्वान द्वारा परात्परा शक्ति को - भगवती माता को- 'सावित्री' के रूप में अवतरित होने को वात्सल्य- विवश करता है ।
'सावित्री' के प्रथम भाग में वर्णित गाथा का केन्द्रीय पात्र अश्वपति ही है जो निर्ज्ञान एवं अज्ञान के पाश से आत्मा की मुक्ति, गुह्य ज्ञान, जीव की स्वतन्त्रता के प्रति सचेत होकर विभिन्न लोकों का यात्री बनता है । वह क्रमश: सूक्ष्म जड़ तत्त्व के राज्य, प्राणतत्त्व के उत्थान - पतन, क्षुद्र प्राण के राज्य, क्षुद्र प्राण के अधिदेवों, महत्तर प्राण के राज्य एवं अधिदेवों का परिचय पाकर अज्ञान की रात्रि, मिथ्यात्व के जगत्, अशुभ की जननी तथा अन्धकार के पुत्रों के बीच होता हुआ प्राणिक देवों के भोग-लोक का वैभव देखता है । तत्पश्चात् क्षुद्र मन और महत्तर मन के राज्य एवं अधिदेवों का दर्शन करता हुआ ‘आदर्श के स्वर्गों' में होते हुए मन के स्वत्व में स्थित होकर विश्वात्मा तथा महत्तर ज्ञान के राज्यों में प्रवेश करता है। चेतना की इस लम्बी आरोहण यात्रा के अनन्तर अज्ञेय की खोज में प्रवृत्त होकर भगवती माता