SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ viii :: मूकमाटी-मीमांसा घड़ा, इसमें आकाश कैसे आ गया ? आ. वि. - इसमें आकाश रूप परिणमन करने की-मतलब आकाश को अवगाहित करने की और आकाश में अवगाहित होने की, दोनों तरह की क्षमता विद्यमान है । इसी को 'सत्ता' कहा जाता है । अर्थात् वह एक भी है एवं अनेक भी है; सत् भी है और असत् भी। वह सबके साथ जुड़ी हुई है- 'सा प्रतिपक्षाऽपि विद्यते, सा विश्वरूपाऽपि विद्यते । सा एकाऽपि अनेकाऽपि वर्तते।' प्र. मा.- और इसके ये नाम रूपात्मक हैं ? आकार - आयतन कैसा है ? आ. वि.- अपने भीतर जो अनगिनत सम्भावनाएँ हैं, वे सभी सत् में विद्यमान हैं और उनके आकार को 'पर्याय' कहते हैं। वे सब प्रतीक बनाकर व्यक्त की गईं हैं 'मूकमाटी' में। दूसरी बात यह भी है कि ये सब व्यापक होकर भी, पतित से पावन होने की जो यात्रा है - नीचे से उठकर उत्थान की ओर अग्रसर होने की जो हमारी आध्यात्मिक यात्रा है, इसमें सब की सब समाहित हो जाती हैं। कारण, ऐसे किसी नगण्य या तुच्छ व्यक्तित्व को हम ले लें और तुम पावन नहीं बन सकते, ऐसा सुनकर भी जो पावनता की सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयास करता है तो स्पष्ट हो जायगा कि सब में पावनता की सीढ़ियों पर चढ़ने की सम्भावनाएँ हैं। मिट्टी ऐसे ही एक व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है। प्र. मा.- तो आप जो मिट्टी और कांचन के - ये दो घड़े लाए हैं। उसमें उसके मृण्मय एवं धातुमय कांचन के बनाने से आपका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है वरन् यह कि घटत्व दोनों में व्याप्त है, अत: घट दोनों एक हैं, यह आशय आ. वि.- नहीं, नहीं, उन दोनों में घटत्व की व्याप्ति दिखाकर उन्हें एक बताने का उद्देश्य नहीं है, वरन् उद्देश्य है ऊँच-नीच दिखाने का। प्र. मा.- ऊँच और नीच क्या चीज है ? यह ऊँच-नीच बनाने वाला कौन है ? आ. वि.- यह ऊँच-नीच की भावना मनुष्यों के मस्तिष्क की उपज है। फिर तदर्थ कुछ न कुछ सम्बोधन तो देना आवश्यक है । मेरे पास और कुछ वस्तु या पदार्थ नहीं है जो इसको अवहेलित करने वाला व्यक्ति कुछ पा सके। इसीलिए इसको हमने कांचन का रूप दे दिया । कंचन और मृण्मय हमारे लिए समान हैं, यह ठीक है, परन्तु सब के लिए तो ये समान नहीं हैं। जिसके पास समानता नहीं, विषमता है, उसको भी कम से कम महानता का बोध हो जाय। प्र. मा.- इसमें आपने 'आतंकवाद' शब्द का प्रयोग किया है। इसमें कांचन का घड़ा आतंक कराने वाला बन जाता है। इस आतंक से आपके मन में कहीं उस आतंक का भी संकेत विद्यमान है, जो आज इस देश में चल रहा है ? क्या इस आतंकवाद का भी कोई भाव आपके मन में है ? आ. वि.- हाँ, उसका भी भाव, सम्बन्ध है। प्र. मा. - तो आप क्या सोचते-समझते हैं ? कैसे आतंकवाद का मुकाबला कर सकते हैं ? उसका समाधान कैसे किया जा सकता है ? कैसे हो सकता है ? क्या हो सकता है ? आ. वि.- आतंकवाद को मिटाने के लिए पहले हमें यह भी देखना होगा कि आतंकवाद का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? प्र. मा.- कारण की तह में जाना होगा। आ. वि.- वह कारण यही है कि कहीं न कहीं शोषण हुआ है, कहीं न कहीं अनादर या अवहेलना हुई है । उसके अस्तित्व को नकारा गया है। तभी इस प्रकार की घटनाएँ घटती हैं, यह भी तो हमें सोचना चाहिए।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy