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24 :: मूकमाटी-मीमांसा (घ) भाव व्यंजना और विचार संयोजन
____ आलोच्य काव्य राजशेखर के अनुसार शास्त्र काव्य' कहा जा सकता है। उनका पक्ष है कि शास्त्र और काव्य की सापेक्षता के कारण कभी एक का और कभी दूसरे की प्रधानता भी सम्भव है - साथ ही समंजस रूप भी । रचयिता मुनि और आचार्य भी हैं - अत: वह 'काव्यकवि, 'उभयकवि' की अपेक्षा शास्त्रकवि' अधिक हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनमें भावना या कल्पना जैसी कवित्वोचित क्षमताएँ उपेक्षित हैं। रागात्मक लगाव तो स्व-भाव के प्रति है ही, अन्यथा संघर्षों और तूफानों को झेलने और पार करने की प्रेरणा और शक्ति कहाँ से मिलती ? समर्पण भाव की भावना कृति में आद्यन्त व्याप्त है। आचार्य का पक्ष है कि लेखक और वक्ता से कई गुना अधिक साहित्यिक रस को श्रोता आत्मसात् करता है। उनकी दृष्टि में रस स्रष्टा में नहीं, सहृदय ग्राहक या श्रोता में है। यह विषय विवादास्पद है । यह सही है कि रसोइया की रसना रसदार रसोई का रसास्वादन कम कर पाती है, पर काव्य-बीज वह सर्जनात्मक अनुभूति है जो स्रष्टा में है। उसमें रस सम्भावना बन कर तो रहेगी ही, अन्यथा काव्य में रस का फल कहाँ से लगेगा? रसीले बीज
और रसीले फल में अन्तर अवश्य है। इतना अन्तर स्रष्टा और रसयिता की मनोदशा में रहेगा। आचार्यश्री ने आलोच्य कृति के दूसरे खण्ड में सभी रसों की चर्चा की हैं- वीर, हास्य, रौद्र, वात्सल्य, अद्भुत, भयानक, शृंगार, बीभत्स, पर उनका पक्ष है कि रसराज तो 'शान्त' ही है । वह कहते हैं :
"सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है। यूँ गुनगुनाता रहता/सन्तों का भी अन्तःप्रान्त वह ।/"धन्य !
रस-राज, रस-पाक/शान्त-रस की उपादेयता पर ।” (पृ. १६०) ग्रन्थ का प्रतिपाद्य शान्त रस है, जहाँ साधक कुम्भ ने अपनी और अपने निर्देश में चलने वालों में विषय मात्र के प्रति रुचि और संस्कार को नि:शेष कर दिया है, कषाय समाप्त कर दिया है, शम पुष्ट होकर शान्त बन गया है और आत्मा विभावों का निषेध कर स्वभाव में स्थित हो गया है। उपदेशक और रचयिता का एक अन्तर सबसे बड़ा यह होता है कि वह अपनी भावनाओं को पात्र में भरकर संवाद की पिचकारी चलाता है । अत: काव्य विचारगर्भ होने पर भी, उपदेश गर्भ होने पर एक पात्र के माध्यम से भावाविष्ट दशा में निकलते हैं। अत: पाठक भी पात्रों के साथ सुख-दुःख में मग्न होता हुआ अन्त तक रसविभोर होकर साथ देता है।
जहाँ तक कृति में मेरुदण्ड स्थानीय वैचारिकता का सम्बन्ध है, वह आद्यन्त भरा हुआ है । विचार सदातन प्रकृति के भी हैं और अद्यतन या अपने समय के भी। सदातन विचारधारा 'मुक्ति'-कामी 'कुम्भ' या 'माटी' की यात्रा से सहज सम्बद्ध है । माटी से कंकर का नि:सारण भूतशुद्धि की प्रक्रिया है। कषाय के कारण आत्मा पर पड़े विजातीय द्रव्यों का निःसारण है। पर विजातीय द्रव्यों के नि:सारण से ही काम नहीं चलता, उसके मूलस्रोत कषाय को भी सुखाना पड़ता है। कुम्भ में स्थित जलीय अंश उसी का प्रतीक है जिसे कुम्भ तपस्या से सुखाता है । आगे अग्निपरीक्षा में कुम्भ अवतीर्ण होता है तथा भवनाशिनी भावना-मग्न होता है । दया, क्षमा, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दर्शन, अध्यात्म, समता, अनेकान्त, मोक्ष आदि पर पगे-पगे चर्चा आद्यन्त व्याप्त है । परस्पराप्रतिष्ठ 'रामायण' में करुण, 'महाभारत' में शान्त', 'किरातार्जुनीय' एवं 'शिशुपालवध' में 'वीर' तथा 'नैषधीयचरित' में 'शृंगार रस' का निष्पादन है। 'रघुवंश' का वैरस्यावसान शान्त के पक्ष में और 'कुमारसम्भव' का तारकसंहार पर्यवसायी होने से वीर के पक्ष में निर्वाह होता है । वैचारिक तत्त्व सर्वत्र विद्यमान हैं। इस साम्य के बावजूद गृहस्थ और मुनि के व्यक्तित्व भेद से अन्तर उभार पर स्पष्ट ही होगा।