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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 21 साथी बन साथ देता है।" (पृ. ९) "किन्तु बेटा !/इतना ही पर्याप्त नहीं है ।/आस्था के विषय को आत्मसात् करना हो/उसे अनुभूत करना हो/तो साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०) 0 "इतना ही नहीं,/निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन सम्भव है।" (पृ. ११) इस प्रकार धरती से माटी को लम्बा सारगर्भ उपदेश मिलता है । माटी भी कषायसिक्त आत्मपट पर द्रव्यकर्म और भावकर्म के द्रव्यात्मक आवरण की बात समझकर उसके निराकरण का संकल्प लेती है, विभाव से स्व-भाव की ओर जाने की प्रतिज्ञा करती है। साधक में अभीप्सा तीव्र होनी चाहिए। साधना के साँचे में ढालकर अभीष्ट स्वरूप उभारने वाला निर्देशक- जो अकारण करुणावरुणायल है, स्वयं खींच लेता है या खिंचा चला आता है । कुम्भकार सद्गुरु का प्रतीक है । वह 'कुं'- धरती का 'भ'- भाग्य, 'कार'- विधाता है जो कर्तृत्वबुद्धि से मुड़कर कर्तव्यबुद्धि से जुड़ गया है । यह क्रिया प्रयोजन की निष्पत्ति तक अनिवार्य है। यही शिल्पी माटी में निहित कुम्भाकार सम्भावना को जन्म देता है, साधना के चक्र पर ढालता है। वह माटी से पुन: उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहता है और माटी के उत्तर से इस निष्कर्ष पर पहुँचता "पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है/और पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ. ३३) वह सद्गुरु शिल्पी माटी को सान्त्वना देता है - अभय की मुद्रा में। चाक साधना पर माटी के चढ़ने से पूर्व, उसमें निहित सम्भावनात्मक कुम्भाकार के प्राकट्य के पूर्व पार्थिव काया की भूतशुद्धि अपेक्षित है, मलसांकर्य दूर कर वर्णलाभ देना पड़ता है : "वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से वरन्/चाल-चरण, ढंग से है।” (पृ. ४७) यानी 'मनमुख' से 'गुरुमुख' होना है, अधोमुखी वासना प्रेरित चालढाल को ऊर्ध्वासीन गुरु की ओर उन्मुख करना है, 'पराङ्मुख' से 'प्रत्यङ्मुख' होना है। इस बीच माटी-कंकर संवाद भी आता है जिसमें वह माटी कहती है कि उसमें भी सम्भावना है । उस 'खरा' होने की सम्भावना को 'हीरा' में मूर्त करना है पर एतदर्थ राख' बनने की दिशा का 'राही' होना होगा, तभी 'खरा' और 'हीरा' की ऊर्ध्वगामिनी सम्भावना मूर्त होगी। ग्रन्थिमोचक सद्गुरु आगे बढ़ता है निर्ग्रन्थ होने की दिशा में, निर्ग्रन्थ बनाने की दिशा में । 'मुख' सन्धि से निकलकर यह कथा संवाद के सहारे 'प्रतिमुख' सन्धि में प्रवेश करती है जहाँ प्रयत्न' और 'बिन्दु'का समन्वय होता है। शिल्पी के निर्देशन में चल रही माटी की साधना के दौरान कुदाली, मछली, काँटा, गदहा आदि न जाने कौन-कौन से विचारगर्भ प्रसंग लाए जाते हैं । अन्तत: कुम्भ उभर आता है, पर कषाय का प्रतीक जलीय अंश उसमें और शेष है । तपस्या से उसे भी सुखाया जाता है। 'तपन' पर अनेक विघ्न -बाधाएँ आती हैं, संकल्पवान् का सहायक पवन बनता है, जलीय अंश या कषाय समाप्त हो जाता है। अभी भी इस साधक को अग्नि परीक्षा देनी है और अग्नि परीक्षा से उसमें निखार और स्थायित्व आता है। अब वह पात्र' सत्पात्र बनता है तब उसका साज-शृंगार होता है । सत्पात्र की सार्थकता सन्तों के चरणों में समर्पण में है। यह कार्य सेठ द्वारा सम्पादित
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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