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________________ वे सैकड़ों अथवा हजारों कोस वाहन आदि में बैठकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का नाश कर अपने गुरु आदि की वन्दना करने के लिए क्यों जाते होंगे? क्या गुरु का मानसिक ध्यान घर बैठे शक्य नहीं है कि जिस कारण गुरु के मूर्तिमय शरीर की वन्दना हेतु, हिंसा करके हजारों कोस जाने की जरूरत पड़ती है। सांसारिक जीव अनेक चिन्ताओं से ग्रस्त होते हैं। किसी आलम्बन के अभाव में उनको शुभध्यान की प्राप्ति होना आसान नहीं है। अस्थिर मन एवं चंचल इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना बच्चों का खेल नहीं है। किसी वाद्य यंत्र पर गाया हुआ गीत कानों में पड़ते ही चंचल मन उधर चला जाता है। उस समय ध्यान की बातें कहीं उड़ जाती हैं। ऐसी चंचल मनोवृत्ति वाले लोगों के लिए श्री जिनपूजा में लीन हो जाना, यही एक परम ध्यान है। __अनेक चिन्ताओं से युक्त गृहस्थाश्रम में जिनपूजा का अनादर करना, केवल हानिकारक ही है। दुनियादारी की विविध झंझटों में फंसे हुए गृहस्थों के लिए मूर्ति के आलम्बन बिना मानसिक ध्यान होना सर्वथा असम्भव है। श्री जिनपूजा का आदर करके तथा मूर्ति के माध्यम से श्री जिनेश्वरदेव के गुणगान आदि करने से चंचल मन स्थिर होता है तथा स्थिर हुए मन को संसार की असारता आदि का बोध सरलता से कराया जा सकता है। सुख-दुःख में जब तक सम-भाव नहीं आता है, तब तक बड़े-बड़े योगिराजों की तरह आलम्बन-रहित ध्यान की बातें करना व्यर्थ है। जिस समय वह समभाव वाली स्थिति आ जायेगी, आलम्बन स्वतः ही छूट जाएगा। श्री जैनधर्म के मर्मज्ञ पूर्वाचार्य महर्षियों ने प्रत्येक जीव को अपने गुणस्थानक अनुसार क्रिया अंगीकार करने का आदेश दिया है। वर्तमान में कोई भी जीव सातवें गुणस्थानक से आगे नहीं चढ़ सकता है। जीवन के भिन्न-भिन्न समय में प्राप्त सातवें गुणस्थानक के कुल समय को जोड़ा जाय तो वह एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं बनता। इसलिये वर्तमान के जीवों को ऊँचे से ऊँचा छठे गुणस्थानक तक ही समझना चाहिए। वह गुणस्थानक प्रमादयुक्त होने से उसमें रहने वाले जीव भी निरालम्बन ध्यान करने में असमर्थ है। ऐसा होना पर भी जो लोग छठे गुणस्थानक की सीमा को भी नहीं पहुँच पाये हैं तथा अनेक सांसारिक प्रपंचों में गुंथे हुए हैं, वे निरालम्बन ध्यान की बातों का प्रदर्शन करते हैं, वह केवल आडम्बर है। चौथे, पाँचवे गुणस्थानक में होने के नाते श्रावक, द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा करने के अधिकारी हैं, जबकि साधु उनसे ऊँचे स्थान अर्थात् छठे गुणस्थानक में होने से केवल भावपूजा के अधिकारी है। जिस प्रकार व्यावहारिक शिक्षा में पहले क, का आदि फिर बारहखड़ी, उसके बाद शास्त्राभ्यास, ऐसा क्रम है, उसी प्रकार गुणस्थानक की ऊँची दशा में चढ़ते समय क्रिया में भी परिवर्तन होता रहता है। सीढ़ियाँ छोड़कर एकदम छलाँग मारकर भवन के ऊपरी भाग 78
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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