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________________ अर्थात् - "सिद्धिगति नाम के स्थान पर पहुँचे हुए" इस प्रकार कहने में आता है। इन पाठों आदि का सच्चा रहस्य समझ कर पूर्वाचार्यों द्वारा अत्यन्त आदर सहित प्रमाणिक की हुई श्री जिनप्रतिमा का आदर करना चाहिए। प्रश्न 3 - क्या कोई ऐसा शाखीय प्रमाण है कि स्थाप्य की स्थापना किये बिना कोई भी धर्मक्रिया हो ही नहीं सकती? उत्तर - श्री जैनधर्म में समस्त धर्मक्रियाएँ स्थापना के सम्मुख ही करनी चाहिए, इसके लिए अनेक सूत्रों के प्रमाण हैं। जैसे देव के अभाव में देव की मूर्ति चाहिए। वैसे ही गुरु के अभाव में गुरु की स्थापना करनी चाहिए। दुषम काल में सूर्य समान पूर्वधर आचार्य भगवान श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण महाराज स्वरचित श्री विशेषावश्यक महाभाष्य में गुरुअभाव में गुरु की स्थापना करने के विषय में निम्नलिखित गाथा द्वारा फरमाते हैं . गुरुविरहमि ठवणा गुरुवएसोवदंसणत्यं च। जिणविरहंमि जिणविंयसेवणानंतणं सहलं ||1|| श्री ठाणांग सूत्र में भी दस प्रकार की स्थापना बताई है। उसकी स्थापना कर 'पंचिंदिय' सूत्र से उसमें गुरु महाराज के गुणों का आरोपण कर उसके आगे धर्मक्रिया करना उचित है। स्थापना में मुख्य स्थापना 'अक्ष' की करते हैं। वह तीन, पाँच, सात या नौ आवर्त वाला हो तो उत्तम गिना जाता है। उसका फल श्री भद्रबाहुस्वामी कृत 'स्थापना कुलक' में विस्तार से बताया गया है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने भी स्थापना की सज्झाय बतलाई है। उसमें भी इसका फल तथा विधि बताई है। पूर्वोक्त 'अक्ष' का योग न बने तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र के उपकरण जैसे कि पुस्तक, नवकारवाली आदि में स्थापना करने का विधान किया हुआ है। आवश्यक धर्मक्रियाओं में स्थान-स्थान पर गुरु महाराज की आज्ञा मांगनी पड़ती है तो वह क्रिया करते समय साक्षात् गुरु न होने की स्थिति में उनकी स्थापना बिना कैसे काम चल सकता है? श्री समयाथांग सूत्र में बारहवें समवाय में गुरुवन्दन के पच्चीस बोल पूरे करने का आदेश है। उसका पाठ निम्नांकित है - दुवालसावत्ते कित्तिकम्मे पन्नते, तं जहा। । दुओणयं जहाजायं कित्तिकम्मं बारसावथ । चसिरं तिगुत्त, दुष्पवेसं एगनिक्खमणं ||1|| अर्थात् वन्दन क्रिया में बारह आवर्त फरमाए हैं, वे इस प्रकार हैं : अवनत अर्थात् दो बार मस्तक झुकाना और एक यथाजात अर्थात् जन्म तथा दीक्षा ग्रहण करते समय की मुद्रा धारण करनी। बारह आवर्त अर्थात् प्रथम के प्रवेश में छह तथा दूसरे प्रवेश में छह। ये 'अहो कायं कायसंफासं।' आदि पाठ से करना चाहिए। -72
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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