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सद्गति का पात्र बनता है।
दूसरी विचारणीय बात यह है कि ब्रह्मचारी महात्माओं को स्त्री की मूर्ति देखने का निषेध किया है परन्तु साक्षात स्त्री के हाथ से आहार-पानी लेने का निषेध नहीं किया। स्त्रियाँ दर्शन-वन्दन करने आवें, घंटों तक व्याख्यान सुनने बैठी रहें, धर्मचर्चा सम्बन्धी शंकासमाधान अथवा वार्तालाप करें, आदि कार्यों में स्त्री का साक्षात् परिचय होते हुए भी निषेध नहीं किया, पर स्त्री के चित्रांकन वाले मकान में रहने का निषेध किया है, इसका क्या कारण?
___ चित्र में अंकित स्त्री की आकृति मात्र से कोई आहार-पानी मिल नहीं सकता या वार्तालाप हो नहीं सकता है। चित्रांकित स्त्री उठकर स्पर्श भी नहीं कर सकती, फिर भी शास्त्रकारों ने उसे निषिद्ध बताया है। इसके पीछे कारण केवल इतना ही है कि स्त्री के चित्र अथवा मूर्ति की ओर चित्त की जैसी एकाग्रता होती है, मन में दूषितं भाव उठते हैं, धर्मध्यान में बाधा पहुँचती है तथा कर्मबन्धन होने के प्रसंग उपस्थित होते हैं, वैसे धर्म के निमित्त साक्षात् सम्पर्क में आने वाले प्रसंगों में सम्भव नहीं है, इसका कारण यह है कि वहाँ अशुभ मार्ग में चित्त को एकाग्र करने का अवसर साधु को कठिनाई से मिलता है जबकि मकान में स्त्री की मूर्ति होने पर उस ओर टकटकी नजर से बारम्बार देखने का तथा उसमें चित्त के एकाग्र तथा लीन बनने की ज्यादा सम्भावना रहती है तथा परिणामस्वरूप मन में विकार उत्पन्न होते हैं, ऐसे अनिष्टों का पूरा-पूरा भय रहता है।
सूत्रकार महर्षियों की आज्ञा निष्प्रयोजन अथवा विचार रहित नहीं हो सकती। इस पर से यह निश्चित हो जाता है कि मन को स्थिर कर शुभ ध्यान में लाने के लिए शुभ और स्थिर आलम्बन की विशेष आवश्यकता है। ऐसा स्थिर एवं शुभ आलम्बन श्री जिनराज की शान्त मूर्ति के सिवाय दूसरा एक भी नहीं।
इससे दूसरी बात यह भी सिद्ध होती है कि उत्तम ध्यान एवं मन की एकाग्रता करने की अपेक्षा श्री जिनमूर्ति की श्रेणी साक्षात् जिनराज से भी बढ़ जाती है और इसी कारण श्री रायपसेणी आदि शास्त्र-ग्रन्थों में साक्षात् तीर्थंकरदेव को वन्दन नमस्कार करते समय 'देवयं चेइयं' जैसे पाठ हैं अर्थात् जैसी मैं जिनप्रतिमा की भक्ति करता हूँ वैसी ही अन्तरंग प्रीति से आपकी (साक्षात् अरिहन्त की) भक्ति करता हूँ। पुनः साक्षात भगवान को नमस्कार करते समय -
'सिद्धिगइ नामधेयं, ठाणं संपाविउ कामस्सा'
अर्थात् - 'सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले' इस प्रकार बोला जाता है और श्री जिनप्रतिमा के आगे . 'सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं।'
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