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________________ पूर्वक की गई पूजा, प्रभु को अवश्य प्राप्त करवा देती है। सेवक जैसे अपने स्वामी की मूर्ति द्वारा स्वामी की पूजा करके उसके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करता है ; वैसे ही परमात्मा की मूर्ति द्वारा परमात्मा की पूजा करने से पूजक भी महान् लाभ अवश्य प्राप्त कर सकता है। इसी कारण महापुरुषों ने श्री अरिहन्त परमात्मा आदि के चारों निक्षेप संसारी जीवों के लिए परम उपकारी और अत्यन्त लाभदायक बताये हैं। जिस वस्तु के भाव निक्षेप पर लोगों को सम्पूर्ण आदर हो, उनके नाम, स्थापना तथा गुणसमूह के स्मरण, दर्शन या श्रवण से अवश्य उस वस्तु के प्रति प्रेम और आदर में वृद्धि होती है। जिस पर प्यार है उसके नाम, मूर्ति या गण को मान देने से साक्षात् वस्तु को ही मान और आदर देने का अनुभव होता है। किसी धनवान पिता ने परदेश से अपने पुत्र को पत्र द्वारा सूचना दी कि अमुक व्यक्तिको पाँच हजार रुपये दे देना। अव वह पुत्र उस पत्र को पिता का साक्षात् आदेश मानकर उस पर अमल करेगा या नहीं? करेगा, ऐसा ही कहोगे तो वह आदेश, पत्र में स्थापना रूप हाने से स्थापना मानने लायक सिद्ध हो गई। यदि कहोगे कि पत्र मात्र से इस बात पर अमल नहीं करना तो ऐसा करने वाले पुत्र के लिए क्या कहा जाएगा। उमने पिता की आज्ञा का पालन किया या उल्लंघन किया? पालन नहीं, परन्तु उल्लंघन ही कहा जाएगा। इस दृष्टि से श्री तीर्थंकर-गणधर-प्रणीत सूत्रों में प्रतिपादित स्थापना निक्षेप को मानने वाला स्वयं भगवान का ही आदर करने वाला यनता है तथा नहीं मानने वाला स्वयं भगवान का ही अपमान करने वाला यनता है, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। अपने पूर्वजों के चित्र तथा फोटो आदि उनके सम्पूर्ण स्वरूप का बोध कराने वाले होने से उनके भाव निक्षेप की ओर आकर्षित करते हैं, इसमें कोई शंका नहीं है। पर बड़े व्यक्तियों के पूर्णस्वरूप का बोध नहीं कराने वाले उनके वस्त्र, आभूषण एवं पोषाक आदि देखने से भी उनके गुण याद आ जाते हैं। यदि निर्जीव स्थापना निक्षेप सर्वथा निरर्थक हो तो पूर्वोक्त कार्यों में जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाव आते हैं, वे नहीं आने चाहिए। अतः सोचना चाहिए कि परम पजनीय, परमोपकारी, आराध्यतम, अनन्तज्ञानी. देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवान की शान्त, निर्विकार और ध्यानारुढ भव्यमूर्ति के दर्शन से श्री वीतरागदेव के गुणों का स्मरण अवश्य होता ही है तथा उनकी उस मूर्ति को मान देकर हम उनका विनय करते हैं - ऐसा अवश्य कहा जाता है। इतना ही नहीं, पर उनकी मूर्ति के बारम्बार दर्शन, पूजन और सेवन से उनके भाव निक्षेप ऊपर का आदर और प्रेम दिन प्रतिदिन अवश्य वढ़ता जाता है। - 63
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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