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यहाँ यदि ऐसी शंका हो कि स्थापना निर्जीव होने से कार्यसाधक और पूजनीय कैसे बन सकती है? तो इसका समाधान है कि निर्जीव वस्तुमात्र यदि निरर्थक और अपूजनीय हो तो श्री समवायांग, श्री दशाश्रुतस्कंध तथा श्री दशवकालिक आदि सुत्रों में फरमाया है कि गुरु के पाट, पीठ, संथारा आदि वस्तुओं को पैर की ठोकर लग जाय तो भी शिष्य को गुरु की आशातना का दोष लगता है। गुरु के पाट वगैरेह तो निर्जीव ही है।
पूर्वोक्त वस्तुएँ निर्जीव होते हुए भी गुरुओं की स्थापना होने के नाते उनका अविनय करने से शिष्य को आशातना लगती है और विनय करने से भक्ति एवं शुभ फल की प्राप्ति होती है। इसी भाँति श्री जिनेश्वरदेव की मूर्ति श्री जिनेश्वरदेव की ही स्थापना होने से उसकी आशातना या उसका विनय करने से अशुभ या शुभ फल की प्राप्ति होती है। श्री जैनशासन में विनय को ही मुख्य गुण माना गया है। उस गुण के पालन के लिए श्री जिनेश्वरदेव की स्थापना स्वरूप मूर्ति की भक्ति आदि करना भी जैनधर्म में मुख्य वस्तु गिनी जाती है।
यहाँ तक कि साधुओं के वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण और मुँहपत्ति आदि उपकरण निर्जीव होते हुए भी उनके द्वारा चारित्रगुण की साधना हो सकती है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा है कि लकड़ी के घोड़े से खेलते हुए बालक को दूर हटाने के लिए कोई साधु उसे ऐसा कहे कि हे बालकः तेरी लकड़ी हटा, तो मुनि को असत्य बोलने का दोष लगता है। इस दोष से बचने के लिए साधु को ऐसा ही कहना चाहिए कि - हे बालक! तुम्हारा घोड़ा हटाओ; लकड़ी में कोई साक्षात् घोडापन तो है ही नहीं; केवल उसकी असद्भूत स्थापना है, तब भी उसे मानना जरूरी है, तो श्री जिनप्रतिमा को, जो श्री जिनेश्वरदेवों की सद्भूत स्थापना है, उसे माने बिना कैसे चल सकता है?
शक्कर के खिलौने जैसे हाथी, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, गाय, मनुष्य आदि खाने से पंचेन्द्रिय की हत्या करने का पाप लगता है, ऐसा दया धर्म को समझने वाले सभी मानते हैं। वे सभी वस्तुएँ निर्जीव है फिर भी उनमें जीव की स्थापना होने से ही उनको खाने का निषेध किया गया है। इसके सिवाय दूसरा कोई भी कारण ज्ञात नहीं होता।
दीवार पर चित्रित स्त्री की आकृति विकार का हेतु होने से साधु को उसे नहीं देखना चाहिए। ऐसा जो निषेध किया गया है, उससे भी यह सिद्ध होता है कि निर्जीव वस्तुएँ असर करने वाली होती हैं।
स्थापना निर्जीव होने पर भी उसके प्रभाव को जानने के लिए निम्नलिखित दृष्टांत विश्वविख्यात है :
1. अपने पति के चित्र को देखकर पतिव्रता खी खूय प्रसन्न होती है। परन्तु उसमें कभी द्वेष की भावना दिखाई नहीं देती है। 2. प्रजावत्सल गजाओं की प्रतिकृतियाँ देखकर वफादार प्रजा नाराज न होकर प्रसन्न
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