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________________ की परिक्रमा करती चारदीवारी, आदि अर्थों का बोध होता है। परन्तु जब वस्त्र के उद्देश्य से 'कोट' शब्द का प्रयोग होता है तब अन्य अर्थों का बोध नहीं होता। इसी प्रकार गढ के हेत से 'कोट' शब्द का प्रयोग करने समय वस्त्र आदि का ज्ञान नहीं होता, इसका कारण उन वस्तुओं के चारों निक्षेप भिन्न होने के अतिरिक्त क्या है? यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि बाकी के तीन निक्षेप उन्हीं के वन्दनीय एवं पूजनीय हैं, जिनके भावनिक्षेप वन्दनीय और पूजनीय हैं और इसी कारण श्री भगवती, श्री उववाई और श्री रायपसेणी आदि सूत्रों में श्री तीर्थंकरदेव तथा अन्य ज्ञानी महर्षियों के नामनिक्षेप भी वन्दनीय हैं, ऐसा कहा गया है। ___उन-उन स्थानों पर कहा गया है - "श्री अरिहन्त भगवन्तों का नाम-गोत्र भी सुनने से वास्तव में महाफल होता है।' नामनिक्षेप का महत्त्व बताने के लिए श्री ठाणांग सूत्र के चौथे और दसवें स्थान में भी कहा गया है कि - "चउव्यिहे सच्चे पन्नत्ते, तं जहा-नाम सच्चे, ठयणसच्चे, दव्यसच्चे भायसच्चे तथा दसविहे सच्चे पनत्ते तं जहा - जणवयसम्मयठवणा, नामे रूये पडुच्च सच्चे य । यवहारभावजोगे, दसमे उयम्मसच्चे अ IIIII चार प्रकार के सत्य बताये गये है : नाम सत्य, स्थापना सत्य, द्रव्य सत्य और भाव सत्य तथा श्री तीर्थंकरदेवों ने इस प्रकार के सत्य भी बतलाये हैं। जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य और उपमासत्य। इस प्रकार दो चार अक्षरों के नाम की सत्यता और उससे भी महान् फल की सिद्धि होती है, ऐसा शास्त्रकार महापुरुषों ने स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया है, तो फिर श्री वीतरागदेव के स्वरूप का भान कराने वाली शान्त आकार वाली भव्य मूर्ति के दर्शन-पूजन आदि से अनेक गुण लाभ हों तो इसमें क्या आश्चर्य है? 1. जनपद सत्य - पानी को किसी देश में पय, किसी में पीच्य, किसी में उदक और किसी में जल कहते हैं, यह जनपद सत्य है। 2. सम्मत सत्य - कुमुद, कुवलय आदि पुष्प भी कमल से उत्पन्न होते हैं फिर भी पंकज शब्द अरविंद, कुसुम में ही सम्मत है, यह सम्मत सत्य है। 3. स्थापना सत्य - लेप आदि के विषय में अरिहन्त प्रतिमा, एक आदि अंक विन्यास और कार्षापण आदि के विषय में मुद्राविन्यास आदि, ये सब स्थापना सत्य हैं। 4. नाम सत्य - कुल की वृद्धि न करता हो तो भी 'कुलवर्धन' आदि नाम, यह - 58
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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