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________________ श्री उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में वर्णित है।) हिंसा का वास्तविक स्वरूप "श्री जिनपूजा में हिंसा होती है" ऐसा कहकर जो उसका निषेध करते हैं उनके लिए भी उनको मान्य बत्तीस आगमों के आधार पर नीचे अनुसार हितशिक्षा है - जिस-जिस क्रिया में हिंसा होती है, वह यदि त्याज्य है तो सुपात्रदान, मुनिविहार, साधर्मिक-वात्सल्य तथा दीक्षा महोत्सव आदि सभी धर्मकार्य भी त्याज्य ही माने जायेंगे। परन्तु श्री आवश्यक सूत्र, श्री भगवती सूत्र, श्री आचारांग सूत्र और श्री ज्ञातासूत्र आदि आगमों में मुनिदान, साधुविहार और साधर्मिक वात्सल्य आदि धर्मकार्य करने की साधु तथा श्रावक दोनों की आज्ञा दी गई है। श्री उयवाई सूत्र में राजा कोणिक द्वारा किए गए प्रभु के वन्दन-महोत्सव का विस्तृत वर्णन है। • श्री भगवती सूत्र में उदायन राजा द्वारा किया हुआ भगवान के नगर-प्रवेश महोत्सव का तथा तुंगीया नगरी के श्रावकों द्वारा की गई श्री जिनपूजादि का वर्णन है। + श्री विपाक सूत्र में सुबाहुकुमार का वर्णन है। उसमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक पर रहे हुए भी उन सुबाहुकुमार द्वारा किये हुए सुपात्रदान से पुण्यबंध तथा परीत्त-संसार होने का कहा है। जो हिंसा के योग से केवल अधर्म ही होता तो सुबाहुकुमार को पुण्यबंध की प्राप्ति तथा परित्त-संसारिता की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती थी? पर सच्ची बात तो यह है कि दान की भाँति जिनपूजा भी परित्त-संसार तथा पुण्यबंध का कारण होती है। श्री जिनपूजा तथा सुपात्रदानादि धर्मकार्यों में आरम्भ होता है पर फिर भी वह सदारम्भ है और उसके योग से संसार के अन्य असदारम्भ से निवृत्ति होती है, यह बड़ा लाभ है। जो लोग घर, कुटुम्ब, धन-माल, परिवार, बिरादरी आदि असदारम्भों से मुक्त नहीं हुए हैं, उनके लिए दान, देवपूजा, स्वामिवात्सल्य आदि सदारम्भ हितकारी तथा करणीय है। +श्री रायपसेणी सूत्र में श्री केशी नाम के गणधर भगवन्त ने प्रदेशी राजा को असदारम्भ छोडने के लिए कहा है न कि सदारम्भ। सदारम्भ में दो गुण हैं। जहाँ तक सदारम्भ रहता है, वहाँ तक असदारम्भ नहीं हो सकता तथा सदारम्भ में जो द्रव्य खर्च होता है उस द्रव्य से असदारम्भ का सेवन नहीं होता। हिंसा के तीन प्रकार साधु अथवा श्रावक के जितने भी उत्तम कार्य हैं उनमें हिंसा निहित है। परन्तु यह हिंसा कर्मबन्ध का कारण नहीं है। हिंसा तीन प्रकार की कही गई है : हेतु, स्वरूप और अनुबंध। -51
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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