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________________ है, तब-तब उन-उन स्थानों पर श्री जिनमन्दिरों और श्री जिन मूर्तियों तथा उनकी उपासना का अस्तित्व स्थायी रूप से हाता है। इसका कारण यह है कि श्री जिनेश्वरदेवों के पवित्र मार्ग में श्री जिनेश्वर देवों की पूजा के.. सम्यक्त्वशुद्धि का एक परम अंग और आत्मोन्नति का एक अद्वितीय साधन माना गया है। ___ श्री तीर्थंकर देवों का जगत् पर असीम उपकार है, समस्त विश्व का हित करने की सर्वोत्तम भावना में से श्री तीर्थंकर पद का जन्म हुआ है। इसीलिए उन्होंने अनेक भवों से शुभ प्रयत्न कर तीसरे भव में जिन नामकर्म की निकाचना की होती है। अन्तिम भव में वे विश्ववन्ध पुण्य कर्म का उपयोग करते समय विश्व के समस्त प्राणियों के लिए हितकारी धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। इस तीर्थ के प्रभाव से समस्त धर्म-कर्म की सुव्यवस्था विश्व में चालू रहती है। संसारसागर से भव्य आत्माओं को तारने के लिए ये तीर्थ समर्थ होते है। महासत्त्वशाली प्राज्ञ पुरुषों का यह आश्रयस्थान होता है। यह तीर्थ अविसंवादी और अचिन्त्य शक्तियुक्त है और उसका जो कोई आश्रय लेता है उसे वह भयानक भवसागर से तारने में समर्थ है। द्वादशांगी, उसका आधार चतुर्विध श्रीसंघ और उसके आद्य रचयिता श्री गणधरदेव, ये तीनों तीर्थ कहलाते है। इन तीर्थों के आद्य प्रकाशक एवं आद्य स्थापक श्री तीर्थङ्करदेव तथा उनके जीवन की विशिष्टता है। वास्तव में तो श्री तीर्थङ्कर देवों का सर्वोच्च जीवन ही जैनधर्म की महान् सम्पत्ति है। जैनधर्म की शाश्वतता की यदि कोई मजबूत जड़ है, तो वह भी यही है। कभी सर्वनाश जैसी स्थिति भी आ जाय तो भी श्री तीर्थंकरदेवों के सर्वोच्च जीवन का आदर्श, जब तक जगत् में विद्यमान हैं, तब तक पनः धर्मजागृति आते देर नहीं लगती। जैनधर्म की सर्वोपरिता और दृढमूलता होने का मुख्य कारण श्री तीर्थंकरदेवों का सर्वोच्च जीवन ही है। इसी कारण सभी जैन अपनी सभी प्रवृत्तियों में श्री तीर्थंकरदेवों के जीवन को ही ऊँचा स्थान देते हैं। श्री तीर्थंकरों की पूज्यता उनकी विद्वत्ता, राज्यसत्ता अथवा रूप-रंगादि के कारण नहीं है परन्तु उनके तीर्थंकरपने के कारण है और इसलिए जैन-शास्त्रकारों ने श्री तीर्थंकरों की लग्न, राज्य व युद्धलीला अथवा क्रीड़ा आदि की घटनाओं को उपादेय के रूप में आगे नहीं रक्खा परन्तु च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य तथा मोक्ष अवस्थाओं को आगे रखकर ही उनकी उपासना की है। जगत् में एक से बढ़कर एक दूसरा मनुष्य मिल ही जाता है। कोई रूप में, कोई गुण में, कोई जाति में अथवा कुल में, कोई बुद्धि अथवा शाला में, कोई कला अथवा कौशल में, कोई ऋद्धि अथवा समृद्धि में तथा कोई लाभ अथवा ख्याति में - इन सबके मद आदिको उतारने वाला श्री तीर्थकर 44
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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