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सुख प्राप्त करना है। इस महान् कार्य की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता श्रेष्ठ साधनों को प्राप्त करने की है। चंचल चित्त, उच्छंखल इन्द्रियाँ, विषम विषयो एवं कटु कषायों पर विजय प्राप्त हो सके, ऐसा उत्तम साधन शुक्लध्यानावस्थित और शान्त मुद्रायुक्त श्री जिनेश्वर प्रभु की मनोहर प्रतिमा से बढ़कर दूसरा कोई भी नहीं है। भले ही वह मूर्ति फिर पत्थर लकड़ी, धातु, मिट्टी, रेती या किसी भी पदार्थ की बनी हो।
ईश्वर की उपासना यदि धर्म का एक मुख्य अंग है तो उसकी सिद्धि के लिए मूर्ति की आवश्यकता से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। किसी भी निराकार वस्तु की उपासना मूर्ति के अभाव में असम्भव है, इसको सभी धर्मावलम्बी मानते हैं। अतः ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति तथा उसके अस्तित्व का विश्वास बनाये रखने के लिए मूर्तिपूजा की परम आवश्यकता है।
यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे, यह सम्भय है "ईश्वर की उपासना हेत जड़ मूर्ति का आलम्यन लेने की अपेक्षा उनके स्वयं के गुणों का आलम्यन लेना क्या युरा है?"
इसका समाधान है कि ईश्वर जिस प्रकार निराकार है उसी प्रकार ईश्वर के गुण भी निराकार हैं। ईश्वर तथा उसके गुणों का जय कोई आकार नहीं तो अल्पयुद्धि जीव उसकी उपासना किस प्रकार कर सकते हैं? अल्पज्ञ जीयों को उपासना में लीन करने के लिए साकार इंद्रियगोचर तथा दृश्य पदार्थों की आवश्यकता रहेगी ही।
___ यदि कोई ऐसा कहे - हम ईश्वर अथवा ईश्वर के निराकार गुणों की अपने मनमंदिर में मानसिक कल्पना द्वारा उपासना कर लेंगे, ऐसी स्थिति में पाषाणीय मंदिर/मूर्ति की क्या आवश्यकता है? पर ऐसा कहना भी अज्ञानता ही है। मनोमंदिर में निराकार ईश्वर की कल्पना भी साकार ही बनने वाली है, जैसे कि अष्ट महाप्रातिहार्य से विभूषित, केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय से युक्त समवसरण में विराजमान भगवान जिनेश्वर महाराज की धर्मदेशना समय की अवस्था। इस अवस्था की कल्पना निराकार नहीं, साकार है।
__मंदिर और मूर्ति के मानने वाले भी इस कल्पना को ही मूर्त स्वरूप प्रदान करके उपासना करते हैं। कल्पना करके अथवा साक्षात् मूर्ति बनाकर उपासना करना, दोनों का ध्येय एक ही है। इतना अन्तर है कि काल्पनिक मनोमंदिर क्षणस्थायी है जब कि साक्षात् मंदिर तथा मूर्ति चिरस्थायी है। सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि चिरस्थायी दृश्य मंदिरों में जाकर भगवान की शान्त मुद्रायुक्त मूर्ति की भावपूर्वक पूजा अर्चना करके आत्मकल्याण करना, पर क्षणविध्वंसी काल्पनिक और अदृश्य मूर्ति मात्र से संतोष नहीं मान लेना क्योंकि ऐसे संतोष में स्पष्ट रूप से भक्ति की कमी रहती है।
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