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________________ जिसने नहीं छोड़ा, ऐसे लोग केवल जिनपूजा के लिए काम में लाये जाने वाले जल, पुष्प आदि की विराधना को ही जो बड़ा रूप दे देने में प्रयत्नशील हों तो समझना चाहिए कि वे मिथ्यात्य से ग्रस्त एवं भयंकर दुराग्रह से पीड़ित हैं। पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि और प्रत्येक वनस्पति; द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, देवता और नरक वगैरह स्थानों में रहने वाले जितने भी जीव हैं। इनसे भी अनन्तगुणे जीव सुई के अग्रभाग जितने, अनन्तकाय में हैं। इनका उपभोग करने में भी जिनको संकोच नहीं, ऐसे लोग पृथ्वी आदि के अनन्त भाग के जीवों से होने वाली स्वरूपहिंसा की बात को आगे कर श्री जिनपूजा जैसे परमोच्च कर्तव्य को धिक्कारते हैं, यह बात ही बताती है कि उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय तथा विवेकहीनता की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई है। किसी सती को अपने पति के साथ बात करते देखकर यदि कोई वेश्या उसकी हँसी करे अथवा तिरस्कार करे तो उसका यह कार्य जितना नासमझी का है, उतना ही अथवा इससे भी बढ़कर नासमझी का कार्य उन लोगों का है। जिनपूजा से लाभों की परम्परा श्री जिनेश्वरदेव के मनोहर मन्दिर, उनमें प्रतिष्ठत रमणीय प्रतिमाएँ तथा उनकी आनन्ददायक पूजा आदि देखकर लघुकर्मी भव्यात्माएँ सम्यग्दर्शनादि आत्मगुणों को प्राप्त करने वाली बनती हैं तथा परम्परा से देशविरति, सर्वविरति आदि उच्च कक्षाओं को प्राप्त कर, सर्व-कर्म- रहित बनकर अनन्तकाल तक सभी जीवों को अभयदान देने वाली बनती हैं। इसीलिए सम्यग्दर्शनादि भाव धर्मों की प्राप्ति के साधनों को श्री जैनशासन ने परम उपकारक गिना है। जगत् में दया दो प्रकार की हैं : एक द्रव्यदया व दूसरी भावदया । द्रव्यदया की अपेक्षा भावदया अनन्तगुनी श्रेष्ठ है। द्रव्यदया केवल द्रव्य-प्राणों के उद्देश्य से है तो भावदया भाव प्राणों के उद्देश्य से है। द्रव्य-प्राणों का जीवन अल्पकालीन होता है; भाव-प्राण अनन्तकाल तक रहते है। द्रव्य-प्राणों के धारणपोषण से होने वाला सुख थोड़ा और क्षणस्थायी होता है। भाव-प्राणों के आविर्भाव से होने वाला सुख निरवधि एवं चिरस्थायी है। द्रव्यदया करने वाला केवल कुछ लोगों के कुछ दुःखों को कुछ समय के लिए दूर कर सकता है, जबकि भावदया करने वाला सभी जीवों के सर्वकाल के दुःखों को दूर करने वाला अर्थात् उनको सदा के लिए दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला होता है। सम्यग्दर्शनादि भावगुणों की प्राप्ति के सिवाय मोक्षप्राप्ति के अन्य साधन भी जैसे सत्साधुसमागम, श्रीजिनवचन का श्रवण, सर्वविरतिमय शुद्ध जीवन का आचरण और परम्परागत अव्याबाध शाश्वत पद की 35
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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