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________________ यह बात निश्चित रूप से यह बताती है कि कार्य-कारण सम्बन्ध की भाँति वस्तु का वाच्य-वाचक एवं स्थाप्य-स्थापक आदि सम्बन्ध भी विद्यमान है। कार्य-कारण सम्बन्ध को मानना और वाच्य-वाचक सम्बन्ध को न मानना - यह अज्ञानता है। वाचक शब्द निश्चित रूप से वाच्य का बोध करवाता है अतः इस सम्बन्ध से कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता है। नाम-स्थापना के दो-दो प्रकार नाम दो प्रकार के होते हैं, ठीक वैसे ही स्थापना भी दो प्रकार की होती है। घट पदार्थ का 'घड़ा' ऐसा नाम तथा घड़ा पदार्थ रहित शरीरादि अन्य पदार्थ का 'घट' - ऐसा नाम - इसी प्रकार घड़े पदार्थ का आकार वह भी स्थापना और घड़े का चित्रादि में आलेखन, वह भी घड़े की स्थापना। मूल वस्तु के आकार अथवा मुल आकार की भिन्न वस्तुओं के आकार में कोई भिन्नता नहीं होती, अतः दोनों को एक ही नाम से पुकारा जाता है और दोनों अपने स्थाप्य का समान बोध कराती हैं। हाथी घोड़ों के प्रत्यक्ष आकार अथवा उनके चित्र, राजा-रानी के प्रत्यक्ष आकार अथवा उनके चित्रित आकार हाथी-घोड़े अथवा राजा-रानी का ही बोध कराते हैं, न कि किसी अन्य पदार्थ का। मूल वस्तु जिस प्रकार स्थापना से पहचानी जाती है, इसी तरह स्थापना वस्तु भी आकार से ही पहचानी जाती है। दोनों की पहिचान आकार से होने के कारण दोनों द्वारा बोध कराने का कार्य समान रूप से ही होता है। उपास्य देव और उनकी स्थापना - दोनों की पहिचान आकार से होती हैं, इसलिए ये दोनों एक ही नाम से सम्बोधित होते हैं। पहिचान, स्मरण अथवा भक्ति के लिए भावपदार्थ में निहित आकार अथवा भिन्न पदार्थ में निहित आकार समान कार्य करता है। तीर्थंकर, गणधर तथा अन्य इष्ट एवं आराध्य पुरुष अपने काल में स्वयं के आकार से ही पहिचाने जाते थे क्योंकि अवधि, मनःपर्यव आदि अतीन्द्रिय ज्ञानों को धारण करने वाले महर्षि भी तीर्थंकरों की अमूर्त आत्मा अथवा उनके गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने में समर्थ नहीं थे। वे भी उन महर्षियों को उनके औदारिक देह रूपी पिंड अथवा उनके आकार से ही पहिचानते थे। तो फिर अतीन्द्रिय ज्ञान रहित अन्य छद्मस्थ आत्माएँ उन्हें उनके पिंड अथवा आकार से ही पहिचान पाते हैं - इसमें विशेषता क्या है? उपास्य को पहिचानने अथवा उनका परिचय कराने का कार्य जैसे उनके मूल आकार से होता है, वैसे ही अन्य वस्तु में स्थापित उपास्य के आकार से भी वह कार्य हो जाता है; इससे उपास्य की आकारमय स्थापना भी उपासक के लिए उपास्य के समान ही माननीय, पूजनीय एवं वन्दनीय बन जाती है। यह बात अविवादास्पद है। - 19 ' ला हा
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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