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परिशिष्ट - 1
जिन-प्रतिमा माहात्म्य
पूज्य न्यायाचार्य, न्यायविशारद महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज विरचित "श्री प्रतिमाशतक' के अति मननीय 11 पद्य
(1) ऐन्द्रश्रेणिनता - प्रतापभवनं भव्यांगिनेत्रामृतं, सिद्धान्तोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता। मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन्
मोहोन्मादघनप्रमादमदिरामत्तैरनालोकिता इन्द्रों की श्रेणी द्वारा नमस्कृत, प्रताप के गृहरूप, भव्य प्राणियों के नेत्रों को अमृतरूप, सिद्धान्त के रहस्य का विचार करने में चतुर पुरुषों द्वारा प्रीति से प्रमाणभूत की हुई और स्फुरायमान ऐसी श्री जिनेश्वर भगवन्त की प्रतिमा सदा विजय प्राप्त करती है, कि जो प्रतिमा विविध परिणाम वाले मोह के उन्माद और प्रमादरूपी मदिरा से उन्मत्त बने कुमति-पुरुषों को देखने में नहीं आती ॥1॥
(2)
नामादित्रयमेव भावभगवत्ताद्रुप्यधीकारणं, शास्त्रात् स्वानुभवाच्च शुद्धहदयैरिष्टं च दृष्टं मुहुः । तेनार्हत्प्रतिमामनादृतवतां भावं पुरस्कुर्वता .
मन्धानामिव दर्पणे निजमुखालोकार्थिनां का मतिः।। . नामादि तीनों निक्षेप भगवान के तद्रूपपने की बुद्धि के कारण हैं तथा उनको शुद्ध हृदय वाले गीतार्थ पुरुषों ने शास्त्र से तथा अपने अनुभव से स्वीकार किया है तथा बार-बार उनका अनुभव किया है। इससे अर्हत की प्रतिमा का अनादर कर मात्र भाव अर्हत् को जो मानने वाले हैं उनकी बुद्धि दर्पण में मुख देखने वाले अन्धे पुरुषों की भाँति कुत्सित एवं दोषयुक्त है ॥2॥
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