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स्थापना अरिहन्त की उपासना
सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त परमात्मा का भावनिक्षेप पूज्य होने से उनके नामादि निक्षेप भी उतने ही पूज्य और आदरणीय हैं।
वर्तमानकाल में भरतक्षेत्र में तीर्थंकर परमात्मा भावनिक्षेप से विद्यमान नहीं हैं। द्रव्य और भाव निक्षेप से परमात्मा सर्वत्र विद्यमान नहीं रह सकते हैं, किन्तु नाम और स्थापना निक्षेप से तो परमात्मा सर्वत्र विद्यमान रह सकते हैं। अतः साक्षात् परमात्मा के विरह काल में तो हमारे लिए उनकी भक्ति और उपासना का एक मात्र साधन नाम और स्थापना निक्षेप ही है। ठीक ही कहा है -
विषम काल जिन बिम्ब जिनागम, भवियण कूं आधारा ।
तीर्थंकर परमात्मा जब इस पृथ्वीतल पर विचरते थे तो भी उनका अस्तित्व किसी क्षेत्र विशेष में ही मिलता था, अन्यत्र नहीं । जैसे भगवान महावीर राजगृही में विचरते थे, तब उनका अस्तित्व केवल राजगृही में था, अन्यत्र नहीं। उस समय भी अन्य क्षेत्रगत लोगों के लिए परमात्म-भक्ति का एक मात्र साधन जिनेश्वर की स्थापना ही था ।
नाम-स्मरण से भी स्थापना द्वारा अधिक भक्ति की जा सकती है। नाम-स्मरण के समय, किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष का आलम्बन न होने से मन का अन्यत्र भ्रमण सम्भव है, किन्तु स्थापना निक्षेप में मन की एकाग्रता का प्रयास सुसाध्य है।
नाम निक्षेप द्वारा मात्र परमात्मा के नाम का ही स्मरण किया जा सकता है, जबकि स्थापना निक्षेप में परमात्मा की पूजा, भक्ति, उपासना, कीर्तन, नाच-गान, स्तवना आदि सभी सम्भव हैं।
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परमात्मा के विरह काल में परमात्म-भक्ति का एक मात्र साधन जिन-प्रतिमा है। सालम्बन ध्यान के बिना निरालम्बन ध्यान सम्भव नहीं है। अतः सालम्बन ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ जिन - प्रतिमा का ध्यान आवश्यक है।
निराकार सिद्ध परमात्मा की उपासना के पूर्व साकार अरिहन्त परमात्मा की उपासना आवश्यक है। साकार के ध्यान से ही निराकार के ध्यान में पहुँच सकते हैं। साकार ध्यान के लिए अरिहन्त परमात्मा की प्रतिमा ही सर्वश्रेष्ठ आलम्बनभूत है।
"One picture is worth than ten thousand words", के नियमानुसार परमात्मा के हजार बार नाम-स्मरण से जो लाभ नहीं होता हैं, वह एक बार जिनेश्वर प्रतिमा के आलम्बन से हो सकता है।
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