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भी नवीन रचना नहीं की है।
वे लिखते हैं कि - श्री महानिशीथ सूत्र के अमुक पन्ने नष्ट हो जाने से उस सम्बय में गुरुपरम्परा से जिनाज्ञानुसार जितना अधिकार मिला, उसे यहाँ स्थापित किया है। हमारी बुद्धि से इसमें कुछ भी नवीन लेख का समावेश नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस अधिकार के चले जाने से वे उसे प्राप्त न कर सके उस अधिकार को सर्वथा छोड़ दिया। यदि वे पक्षपाती होते तो यद्वा-तद्वा झूठे गप्प हाँककर उसे पूरा क्यों नहीं करते? परन्तु शुद्ध अन्तःकरण वाले महात्मा ऐसा उत्सूत्र भाषण कभी नहीं करते हैं। प्रायः समस्त सूत्र गणधरदेवों ने रचे थे, उतने समस्त श्लोकों की संख्या का प्रमाण आज रहा नहीं है। आचार्यों को जितने-जितने श्लोक याद थे, उतने तो लिख दिए और शेष छोड़ दिए. . . तो फिर जैसी शंका श्री महानिशीथ में उत्पन्न होती है, वैसी शंका अन्य अंगसूत्रों में भी होनी चाहिये। यहाँ इतना समझना महत्त्वपूर्ण है कि समुद्र जितने ग्यारह अंग एक लोटे में समा जाय उतने रह गए हैं, परन्तु पानी तो उसी स्याद्वादमय द्वादशांगी रूप समुद्र का ही है, इसमें लेश भी फर्क नहीं है।
श्री महानिशीथ सूत्र भी अन्य सूत्रों की भाँति अक्षरशः सत्य है। समुद्र समान गम्भीर बुद्धि के स्वामी, परोपकाररत महान् आचार्यों पर, जिनप्रतिमा के द्वेष से कलंक लगाना अत्यन्त अनुचित ही है। सूत्रविरुद्ध एक अक्षर की भी प्ररूपणा करने से आत्मा अनन्त संसारी होती है तो क्या उन आचार्यों को लेश भी भव का भय नहीं था?
श्री महानिशीय सूत्र का आलेखन हुए लगभग 1400 वर्ष बीत चुके हैं तो बीच के 1000-1200 वर्ष तक कोई भी कुतर्क करने वाला क्यों पैदा नहीं हुआ? इस बीच सैकड़ों आचार्य और साधु हो चुके हैं, जिन्होंने निःशंकतया उस सूत्र को मान्य किया है अतः उसकी प्रामाणिकता में सन्देह पैदा करने वाला ही अप्रामाणिक सिद्ध होता है।
प्रश्न 76 - श्री जिनेश्वर भगवन्त को वन्दन-नमस्कार रूप भाव पूजा से लाभ होता है तो फिर पुष्प-फल आदि चढ़ाने से क्या फायदा?
उत्तर - तब तो फिर साधु लोकों की पूजा भी भाव से ही करनी चाहिए। गाड़ी, मोटर, ट्रेन में चढ़कर सैकड़ों मील दूर गुरु को वन्दन करने के लिए जाने से क्या फायदा? घर बैठे मन से ही भावना कर लेनी चाहिये तथा आहार, पानी, वन, पात्र, औषध, पाट आदि से द्रव्यपूजा क्यों करनी चाहिये? उसमें तो प्रत्यक्ष हिंसा है।
साधु आहार करेंगे तो उन्हें स्थंडिल जाना पड़ेगा, पेशाब करना पड़ेगा, चालू वर्षा आदि में भी मल-मूत्र का व्युत्सर्जन करना पड़ेगा और ऐसा करने पर असंख्य जीवों की यावत् पंचेन्द्रिय तक की भी हिंसा हो जाएगी। कभी साधु को अजीर्ण हो गया तो वे दुःखी होंगे, उनके पेट में द्वीन्द्रिय जीव पैदा हो जाएंगे और वे नष्ट हो जाएँगे. . . तो फिर यह
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