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________________ (1) अरिहंताणमयन्नं बदमाणे (2) अरिहंत पणत्तस्स धम्मस्स अवण्णं बदमाणे (3) आयरिय उयज्झायाणं अयण्णं यदमाणे (4) च उनण्णसंघस्स अयण्णं यदमाणे (5) विविक्त यंभचेराणं देवाणं अयन्त्रं वदमाणे। भावार्थ - पाँच स्थानों से जीव दुर्लभबोधि योग्य पापकर्म का बन्ध करता है और जैनधर्म की प्राप्ति को दुर्लभ बनाता है। वे पाँच स्थानक निम्नांकित हैं . (1) अरिहन्त परमात्मा की निन्दा करने से (2) अरिहन्त परमात्मा प्ररूपित धर्म की निन्दा करने से (3) आचार्य उपाध्याय की निन्दा करने से (4) चतुर्विध संघ की निन्दा करने तथा (5) पूर्वभव में परिपूर्ण तप व ब्रह्मचर्य का पालन कर जो देव बने हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि देवों की निन्दा करने से जीव दुर्लभबोधि बनता है और उसे जैनधर्म की प्राप्ति दुर्लभ होती है। उसी सूत्र में कहा है कि उनकी प्रशंसा करने से जीव सुलभबोधि अर्थात् जिनधर्म को सरलता/सहजता से प्राप्त करने वाला बनता है। ___ इस प्रकार सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवों के बीच रातदिन का अन्तर है। उसे यथार्थ रूप से समझकर सम्यग्दृष्टि और उपकारी देवों को विपरीत व सामान्य कोटि में रखने के पाप से बचना चाहिए। प्रश्न 75 - कहते हैं कि श्री महानिशीय सूत्र के अमुक पन्ने नष्ट हो जाने से कई आचार्यों ने मिलकर इसे पुन: तैयार किया है। अत: इसे मानने में शंका क्यों न हो? उत्तर - तो फिर अन्य सूत्रों को मानने में भी शंका रखनी पड़ेगी, क्योंकि वे भी अन्य आचार्यों के द्वारा ही बने हुए हैं - परन्तु यह तर्क जिनपूजा नहीं मानने की मनोवृत्ति में से ही पैदा हुआ है। श्री महानिशीय सूत्र में स्थान-स्थान पर मूर्तिपूजा की पुष्टि होने से श्री नंदीश्वर द्वीप का इस सूत्र में निर्देश होने पर भी उसका अनादर करने के लिए ही इस बात को आगे की जाती है। परन्तु श्री महानिशीथ उपरान्त अन्य अनेक सूत्रों में भी श्री जिनप्रतिमा और उसकी पूजा के पाठ आते हैं। श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने अनेक ग्रन्थ पुस्तकारूढ़ किए, उसमें से श्री नंदीसूत्र में सभी सूत्रों का निर्देश है। उसी निर्देश में श्री महानिशीय सूत्र है। श्री तीर्थंकर गणधर भगवन्तों की परम्परा से चली आ रही प्रणालिका अनुसार, उन आचार्यों ने, उस सूत्र का पिछला भाग लोप हो जाने से, उन्हें जितना मिला उतना जिनाज्ञानुसार लिख दिया। आत्मार्थी, भवभीरुगीतार्थ होने से उन्होंने अपनी मनःकल्पना से एक अक्षर की -167
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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