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ने अनेक युक्तियों से उस देव को समझाने का प्रयास किया, परन्तु उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी। अतः सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में काफी अन्तर सिद्ध होता है।
चौबीस तीर्थंकर गृहस्थावस्था में चौथे गुणस्थानक में होते हैं। उन्हें धर्मी कहें या अधर्मी ?
श्री महावीर परमात्मा, अपने माता-पिता के स्वर्गवास के बाद भी कुछ समय तक गृहस्थ जीवन में रहे। सर्व ममता से रहित और रागद्वेष से विरक्त बने हुए थे फिर भी उनका गुणस्थानक चौथा ही था। भरत चक्रवर्ती गृहस्थपने में चौथे गुणस्थानक पर थे, फिर भी वे आगे केवली हो गए अतः देवताओं को चौथे गुणस्थानक में रहने के कारण ही अधर्मी कहेंगे
तब तो ऊपर के सब महात्मा भी अधर्मी सिद्ध हो जाएंगे।
शुद्ध भाव से ही मुक्ति है। वह भाव, ज्ञान-दर्शन और चारित्र से पैदा होता है और ज्ञान-दर्शन की शुद्धि के लिए मूर्तिपूजा का विधान है। इस कारण देवताकृत जिनपूजा भी धर्म ही गिनी जाएगी - अधर्म नहीं |
# देवता के शुभ आचार- पालन को जीत आचार में गिनकर भी उत्थापित नहीं कर सकते हैं।
प्रथम तो जीत-आचार किसे कहते हैं? यह समझना चाहिए।
जीत अर्थात् अवश्य करने योग्य । अवश्य करने योग्य कार्य को जीताचार कहते हैं। जैसे- श्रावक को जीत व्यवहार से रात्रि-भोजन का त्याग, अभक्ष्य - अनन्तकाय का त्याग, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं का पालन करना चाहिए।
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इससे पुण्यबन्ध होगा या नहीं ?
यदि आप कहेंगे कि पुण्यबन्ध होगा तो फिर देवता जीताचार से मूर्तिपूजा करें तो उससे पुण्यबन्ध होगा या नहीं ?
जिस समय सूर्याभदेव आभियोगिक देवताओं के साथ में श्री महावीर प्रभु के पास आकर वन्दनपूर्वक समवसरण की रचना कर, भक्ति करने की इच्छा व्यक्त करता है, उस समय वीरप्रभु ने कहा था
"पोराणमेयं देया., जीयमेयं देवा. कीथमेयं देवा.., करणिज्जमेयं देवा. आचीन्नमेयं देवा. अग्भणुन्नायमेयं देवा० ।”
भावार्थ - चिरकाल से देवताओं ने यह कार्य किया है। हे देवानुप्रिय ! तुम्हारा यह आचार है, तुम्हारा यह कर्तव्य है, तुम्हारे लिए करणीय है, तुम्हारे लिए आदरणीय है। मैंने तथा अन्य समस्त तीर्थंकरों ने इसकी अनुज्ञा प्रदान की है। (श्री रायपसेणी सूत्र) साक्षात् श्री तीर्थंकरदेव भी जिसके आचरण की इस प्रकार प्रशंसा करते हैं और
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