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केवलज्ञान प्राप्त किया।'
धर्म के प्रति गाढ़ प्रीति वाले देवों के हृदयकमल में सम्यक्त्व जीवन्त हो, तभी उपर्युक्त प्रवृत्ति सम्भव है। मिथ्यात्वी देवों को इस प्रकार की धार्मिक अभिलाषा सम्भव नहीं
इतना जानने पर भी यदि कोई देवताओं के आचरण को अधर्म रूप मानेंगे तो यह केवल अज्ञानता ही है। एक देव तीर्थंकर, साधु व श्रावक पर उपद्रव करता है और दूसरा भक्तिपूर्वक उसका निवारण करता है तो उन देवों को एक समान फल मिलेगा या भिन्नभिन्न? आपके मतानुसार तो एक समान फल मिलना चाहिए - परन्तु वैसा कभी नहीं बन सकता है। यदि कोई शिष्य देव रूप में उत्पन्न होकर अपने पूर्व के गुरु को चारित्र से पतित जानकर प्रतिबोध करे तो उस देव को धर्मी गिनेंगे या अधर्मी?
प्रश्न 73 -चौथे गुणस्थानक में रहे हुए देवताओं द्वारा की गई मूर्तिपूजा को पाँचवें-छठे गुणस्थानक में रहे हुए मनुष्य कैसे मान्य कर सकते हैं? देव तो अपना जीत-आचार समझकर पूजा करते हैं, उसमें पुण्य कैसे हो सकता
उत्तर - चौथे गुणस्थानक में जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उस गुणस्थानक से चौदहवें गुणस्थानक तक जीवों की धर्मश्रद्धा एक समान होती है। उस श्रद्धा में थोड़ा भी फर्क नहीं होता है। यद्यपि उनकी निर्मलता में अन्तर हो सकता है, परन्तु उस अन्तर की यहाँ बात नहीं है।
चौथे गुणस्थानक में अमुक देव आदि तत्त्वों के विषय में श्रद्धा और आगे के गुणस्थानकों में उन तत्त्वों के विषय में श्रद्धाभेद होता हो, ऐसी बात नहीं है। उस-उस स्थिति में रहे हए जीव अन्य (मिथ्या) देव-गुरु का चारों निक्षेप से त्याग करते हैं तथा अरिहन्तादि के चारों निक्षेपों को मान्य करते हैं - इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
चौथे गुणस्थानक में रहे जीव को व्रत-पच्चक्खाण नहीं होते है तथा पाँचवें गुणस्थानक वाले जीव को होते हैं - यह अन्तर जरूर है, परन्तु सम्यक्त्व तो दोनों को होता है।
___ भगवान ने सम्यग्दृष्टि अनेक देवों को मोक्षगामी और एकावतारी कहा है। यदि वे अधर्मी हो तो उन्हें मोक्ष की प्राप्ति इतनी शीघ्र कैसे सम्भव है?
___ तप-संयम की आराधना से पूर्वोपार्जित निकाचित पुण्य को भोगे बिना छुटकारा नहीं है तथा देव-भव में चारित्र का उदय नहीं होने से उस भव में मोक्ष सम्भव नहीं है, इसलिए उन्हें मनुष्य गति में अवश्य आना पड़ता है - परन्तु इससे देवता अधर्मी नहीं बन जाते हैं। ___श्री उपासकदशाश्रुतस्कन्ध में कहा है - गोशालक के भक्त मिथ्यात्वी देव ने कुण्डकोलिक श्रावक को जैनधर्म से भ्रष्ट करने के लिए बहुत से उपाय किए थे। कुण्डकोलिक
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