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नामादित्रयमेव भावभगवत्ताद्रूप्यधीकारणं,
शास्त्रात् स्वानुभवाच्च शुद्धहृदयैरिष्टं च दृष्टं मुहुः । तेनार्हत् प्रतिमामनादृतवतां भावं पुरस्कुर्वता - मन्धानामिव दर्पणे निजमुवालोकार्थिनां का मति: १ ||
अर्थ : "शास्त्र के प्रमाण से एवं स्वानुभव से शुद्ध हृदय वाले इस बात की प्रतीति करते हैं कि भाव- अरिहन्त में तद्रूपपने की बुद्धि का कारण नामादि तीन निक्षेप ही हैं। अंधे की दर्पण में मुख देखने की चेष्टा कितनी हास्यास्पद है। वैसे ही अरिहन्त की प्रतिमा का आदर किए बिना भाव अरिहन्त को आगे करने वालों की बुद्धि भी उतनी ही हास्यास्पद है।"
जिनबिम्ब का महत्त्व बतलाते हुए पूज्य उपाध्यायजी महाराज आगे फरमाते हैं कि - "जिनेश्वर देवों की प्रतिमा देवेन्द्रों की श्रेणी द्वारा नमस्कृत है, प्रचण्ड तेज का निकेतन है, भव्य जीवों के नेत्रों के लिए अमृत समान है, सिद्धान्त - रहस्यों के विचार में चतुर पुरुषों के लिए प्रमाणित है और प्रतिक्षण वर्धमान कान्ति का आलय है। इस प्रकार सदैव जय पाने वाली जिनमूर्ति को उन्माद और प्रमाद की मदिरा से उन्मत्त बने पुरुष ही आदर की दृष्टि से नहीं देखते हैं।"
जिनबिम्ब में परमात्म भाव का आरोपण है, अतः अनन्तज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा की शान्त, निर्विकार और ध्यानारूढ़ भव्य मूर्ति के दर्शन से श्री वीतराग परमात्मा के लोकोत्तर गुणों का स्मरण अवश्य होता है।
आगम-प्रमाण से भी जिनबिम्ब की पूजा सिद्ध हो जाती है। 'कल्पसूत्र' ग्रन्थ में सिद्धार्थ महाराजा द्वारा जिनेश्वरदेव की द्रव्यपूजा करने का कथन है।
* उपासकदशांग में आनन्द श्रावक द्वारा जिनप्रतिमा के वन्दन का पाठ है। ज्ञातासूत्र में द्रौपदी द्वारा जिनबिम्ब पूजा करने का अधिकार है।
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* भगवती सूत्र में चमरेन्द्र के अधिकार में तीन शरण बताते हुए दूसरा शरण श्री अरिहन्त के चैत्य का बतलाया है।
* भगवती सूत्र में जंघाचारण और विद्याचारण मुनियों द्वारा जिनप्रतिमा के वन्दन का अधिकार है।
आवश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती द्वारा जिनप्रासाद के निर्माण की बात आती है। रागी के दर्शन से यदि मन में राग-भाव पुष्ट होता है तो वीतराग परमात्मा के दर्शन से मन में विराग भाव पुष्ट क्यों नहीं होगा?
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