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________________ (२०) श्री महानिशीथ सूत्र में श्री जिनमन्दिर बनवाने वाला बारहवें देवलोक में जाता है, ऐसा कहा है। ऐसे सैकड़ों मूल सूत्र तथा नियुक्ति आदि के प्रमाणों से मूर्तिपूजा उत्तम फल देने वाली सिद्ध होती है। वर्तमान में कई लोग अपने आत्मिक धन का झूठा अभिमान करके निश्चय को आगे कर द्रव्यरहित, केवल भाव की ही बात करते हैं और इसके द्वारा अपनी स्वार्थ-सिद्धि का आडम्बर करते हैं; परन्तु ऐसा करने से थोड़ा बहुत भी जो आत्मिक धन होता है उसे भी अपने अहम् अथवा अहंकार से खोकर वे निर्धन बन जाते हैं। इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में एक दृष्टांत है। किसी साहूकार ने अपने तीन पुत्रों की परीक्षा लेने के लिए प्रत्येक को हजार-हजार स्वर्णमुद्रायें देकर परदेश भेजा और कहा कि इस धन से व्यापार कर, लाभ प्राप्त कर, शीघ्र लौट आओ। बड़े पुत्र ने तो कर्मचारी नियुक्त कर, आने जाने वालों का अच्छा आतिथ्य सत्कार कर, सभी को प्रसन्न कर, अपने व्यवसाय में खूब धन कमाया। दूसरे पुत्र ने विचार किया कि अपने पास तो धन बहुत है, उसे बढ़ाकर क्या करना है? मूलधन बना रहे, इतना काफी है। ऐसा सोचकर मूलधन को कायम रखकर ऊपर का नफा खाने-पीने व मौज-शौक में उड़ा दिया। तीसरे पुत्र ने मन में सोचा कि पिता की मृत्यु के पश्चात् उनकी विपुल धनराशि के मालिक हम ही तो हैं, फिर कमाने की चिन्ता क्यों करना? ऐसे अभिमानी विचार से उसने मूल रकम भी मौज-शौक में उड़ा दी। ___ अब कुछ समय पश्चात् तीनों पुत्र, अपने पिता के पास घर पहुँचे। सारी बात पूछने के बाद उस पुत्र को, जिसने मूलधन भी उड़ा दिया था, घर के काम-काज में नौकर की तरह रख, अपना गुजारा करने को कहा, अर्थात् श्रेष्ठिपुत्र के पद से हटाकर नौकर बनाया। दूसरे पुत्र को जिसने मूलधन को रखकर उसमें कोई वृद्धि नहीं की, कुछ द्रव्य से व्यापार करने की आज्ञा दी। परन्तु सबसे बुद्धिमान बड़े पुत्र को, जिसने असली रकम के अलावा बड़ा नफा कमाया था, घर का सारा भार सौंपकर घर का मालिक बनाया। ___ऊपर बताये हुए दृष्टान्त का उपनय यह है कि असली धन तो मनुष्य-जन्म है। इसमें जिसने अधिक कमाई की, उसे धर्ममार्ग में बढ़कर महान् समृद्धिशाली व देवगति अथवा सर्वोत्कृष्ट अक्षय स्थिति को क्रमशः प्राप्त करने वाला समझना चाहिए। जिसने मूलधन (मनुष्य भव) को यथावत् कायम रखा वह मरकर पुनः मनुष्य योनि में ही आया, कुछ बढ़ाघटा नहीं, ऐसा स झना चाहिए किन्तु तीसरा तो असली रकम भी गवाँ बैठा, दिवालिया बन गया, इससे उसे मनुष्यगति रूपी उत्तम रल को हारकर कर्मवश नरक-तिर्यंच रूपी नीच 1135 -
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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