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कल्पसूत्र
को स्थिरावली की टीका में कहा है।
(3) श्री द्वीपसागरपन्नत्ति तथा श्री हरिभद्रसूरिकृत आवश्यक की बड़ी टीका के अनुसार श्री जिनप्रतिमा के आकार की मछलियाँ समुद्र में होती हैं। जिनको देखकर अनेक भव्य मछलियों को जातिस्मरणज्ञान प्राप्त होता है और बारह व्रत धारण कर सम्यक्त्व सहित आठवें देवलोक में जाती है। इस प्रकार तिर्यंच जाति को भी जिनप्रतिमा के आकार मात्र के दर्शन से अलभ्य लाभ प्राप्त होता है तो मनुष्य को अलभ्य लाभ प्राप्त हो, इसमें क्या शंका हो सकती है ?
(4) श्री ज्ञातासूत्र में श्री तीर्थंकर गोत्र-बन्ध के बीस स्थानक कहे हैं। उसके अनुसार राजा रावण ने प्रथम अरिहन्तपद की आराधना, श्री. अष्टापद पर रहने वाले तीर्थंकर देव की मूर्ति की भक्ति कर, तीर्थंकर गोत्र बाँधा, ऐसा रामायण में कहा है। यह रामायण श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने सत्रह सौ वर्ष पूर्व हुए, श्री जिनसेनाचार्य कृत पद्मचरित्र के आधार से बनाई है और जिसे प्रायः तमाम जैन मानते हैं।
(5) उसी ग्रन्थ में लिखा है कि रावण ने श्री शान्तिनाथ प्रभु की मूर्ति के सामने बहुरूपिणी विद्या की साधना की और प्रभु भक्ति से वह विद्या सिद्ध हो गई।
(6) श्री पद्मचरित्र में कहा है कि लंका जाते समय श्री रामचन्द्रजी ने समुद्र पार उतरने के लिए श्री जिनमूर्ति के सामने तीन उपवास किये। धरणेन्द्र ने आकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ति दी, जिसके प्रभाव से उन्होंने आसानी से समुद्र पार कर लिया।
(7) जरासंध राजा ने कृष्ण महाराज की सेना पर जरा डाली, सभी सैनिक बेहोश हो गए। तब श्री नेमिनाथ स्वामी की आज्ञा से कृष्ण राजा ने तीन उपवास किये। धरणेन्द्र ने आकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति दी, जिसके स्नान जल से 'जरा' टूट गई और सारे सैनिक होश में आ गये। यह मूर्ति शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से अब भी गुजरात में विद्यमान है (यह कथन श्री हरिवंशचरित्र में है ) ।
(8) नागार्जुन जोगी को कहीं भी स्वर्ण-सिद्धि नहीं हुई । अन्त में श्री पादलिप्ताचार्य के वचन से श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा के सामने श्रद्धापूर्वक एकाग्रता करने से वह सिद्धि प्राप्त हुई। इससे वह योगी परम सम्यक्त्वधारी श्रावक बना और गुरु पादलिप्ताचार्य 'की कीर्ति के लिए श्री शत्रुंजय की तलेटी में पालीताणा नगर बसाया, ऐसा श्री पादलिप्त चरित्र में लिखा है।
(9) श्री श्रीपाल राजा तथा सात सौ कोढ़ियों का अठारह प्रकार का कोढ़ उज्जैन नगर में श्री केसरियानाथजी की मूर्ति के सामने, श्री सिद्धचक्र यंत्र के स्नान जल से दूर हो गया तथा उनकी काया कंचन समान बन गई। वह मूर्ति हाल में मेवाड़ में धुलेवा नगर में विराजमान है । (देखो श्री श्रीपाल चरित्र ) ।
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