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________________ सुतत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइयो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगो ||3|| अनुयोग अर्थात् व्याख्यान के तीन प्रकार है । सर्वप्रथम केवल सूत्र और उसका अर्थ दूसरा अनुयोग नियुक्ति से मिश्र तथा तीसरा भाष्य चूर्णि आदि सभी से। इस प्रकार अनुयोग अर्थात् अर्थ कहने की विधि तीन प्रकार की है। सूत्र तो केवल सूचना रूप होते हैं। उनका विस्तृत विवरण तो पंचांगी से ही मिलता। है। जो पंचांगी को मानने से इन्कार करते हैं वे भी गुप्त रूप से टीका आदि देखते हैं, तभी उनको अर्थ का पता लगता है। और शास्त्र कहते हैं कि दस पूर्वधर के वचन सूत्र तुल्य होते हैं। निर्युक्तियों के रचयिता श्री भद्रबाहुस्वामीजी चौदह पूर्वघर हैं। भाष्यकार श्री उमास्वातिजी वाचक पाँच सौ प्रकरणों के रचने वाले दश पूर्वघर हैं। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी पूर्वधर हैं। इसलिए उनके वचन सभी प्रकार से मानने योग्य हैं। चूर्णिकार भी पूर्वधर हैं। टीकाकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज आदि भी भवभीरु, बुद्धिनिधान तथा देवसान्निध्य वाले हैं। अतः उनके वचनों को प्रमाणरहित मानना भयंकर अपराध हैं। प्रत्येक भवभीरु आत्मा का यह कर्तव्य है कि इन प्रामाणिक महापुरुषों के एक भी वचन के प्रति अज्ञानवश भी कोई दुर्भाव न आने पावे इसके लिये सम्पूर्ण रूप से सतर्क रहे। प्रश्न 39 - आगम पैतालीस कहे जाते हैं फिर भी कई लोग बत्तीस ही मानते हैं तो क्या यह उचित हैं? उत्तर - नहीं। बत्तीस आगम मानने वाले भी श्री नंदीसूत्र को मानते हैं, जिसमें तमान सूत्रों की सूचि दी गई है । उसमें दिये हुए अनेक सूत्रों में से केवल बत्तीस ही मानना और दूसरों को नहीं मानना, इसका क्या कारण है ? बत्तीस के सिवाय अन्य नये लिखे हुए हैं, ऐसा कहा जाय तो ये बत्तीस भी नये लिखे हुए नहीं है, इसका क्या प्रमाण है? यदि परम्पर प्रमाण है तो इसी प्रामाणिक परम्परा के आधार पर दूसरे सूत्रों को भी मानना चाहिए । बत्तीस सूत्रों के मानने वालों को इन बत्तीस में नहीं कही हुई ऐसी भी बहुत सी बातें माननी पड़ती है। बीस विहरमान का अधिकार, धन्ना - शालिभद्रचरित्र, नेम -राजुल के रामायण आदि बहुतसी वस्तुएँ बत्तीस आगमों में नहीं हैं, फिर भी उनको माननी पड़ती हैं। बत्तीस सिवाय के अन्य सूत्र परस्पर नहीं मिलते, इसलिए नहीं मानते यदि ऐसा कहा जा तो बत्तीस में भी कई स्थानों पर विरोध दिखाई देता हैं, इसका क्या कारण ? यह विरो निर्युक्ति, भाष्य और टीका आदि को माने बिना नहीं हट सकता । भव, कितने ही वचन उत्सर्ग के होते हैं व कितने ही अपवाद के। कितने ही विधिवाक्य होते हैं व कितने ही अपेक्षावाक्य। कितने ही पाठान्तर, 102
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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